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ग्यारहवां अध्याय
[ ४१७ ] योग से बाहर निकाली जाती है । दो समयों में भापा बोली जाती है अर्थात् प्रथम समय में भापा के पुद्गलों का ग्रहण होता है और दूसरे समय में उनका त्याग किया जाता है। भापा सत्य आदि के भेद से चार प्रकार की है और उन चार भेदों में से सिर्फ दो प्रकार की भाषा बोलने के योग्य है, लत्य और असत्यामृषा भाषा बोलने योग्य है और असत्य तथा सत्यासत्य भापा त्याज्य है।
श्रीगौतम स्वामी ने भाषा के संबंध में विशिष्ट जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा है- भासा गं भंते ! किमादिया, किंपबहा, किंसठिया, किंपज वसिया?'
अर्थात् भगवन ! भापा का आदि कारण क्या है ? भाषा किससे उत्पन्न होती है ? उसका श्राकार क्या है ? उसका अन्त कहां है ?
समाधान करते हुए भगवान् कहते हैं-'गोयमा! भासा णं जीवादीया, सरीरप्पभवा, रजसंठिया, लोगंतपजवलिया परणत्ता।'
अर्थात् भाषा का मूल कारण जीव है, क्योंकि जीव के प्रयत्न के विना बोध कराने वाली भाषा की उत्पत्ति संभव नहीं है। भाषा का मूल कारण यद्यपि जीव है तथापि वह शरीर से उत्पन्न होती है। भाषा का श्राकार वज्र के समान है, क्योंकि बाहर निकले हुए भाषा द्रव्य समस्त लोक को व्याप्त करते हैं और लोक की श्राकृति वज्र के समान है इसलिए भाषा का भी आकार वज्र के समान है। भाषा का अन्त. वहां होता है जहां लोक का अन्त होता है। लोकान्त तक ही धर्मास्तिकाय का सद्भाव है। भागे उसका अभाव होने से मापा द्रव्यों का गमन नहीं होता।
इस प्रकार भाषा का स्वरूप समझ कर विवेकी जनों को भापा के प्रयोग में कुशलता प्राप्त करनी चाहिए । भाषा संबंधी कौशल से चारित्र की आराधना होती है
और अकौशल से विराधना होती है। इसीलिए सूत्रकार यहां यह निरुपण करते हैं कि किस-किस प्रकार की भाषा बोलने योग्य है और किस-किस प्रकार की बोलने के योग्य नहीं है।
जो भापा सत्य होने पर भी सावध होने के कारण बोलने के योग्य नहीं है वह नहीं बोलनी चाहिए । तथा जो भापा सत्यासत्य रूप अर्थात् मिश्र है तथा जो असत्य है, वह बोलने के योग्य नहीं है। तीर्थकर भगवान ने जिस भाषा का स्वयं प्रयोग नहीं किया, वह भाषा भी प्रयोग करने के योग्य नहीं है । इस प्रकार की भापा चारित्रनिष्ठ विवेकी जनों को नहीं बोलनी चाहिए।
इन भाषाओं का स्वरूप पहले बताया जा चुका है। मूल:-असच्चमोसं सच्चं च, प्रणवजमककसं।
समुप्पेहम संदिद्धं. गिरं भासिज्ज पनवं ॥२॥ छायाः-श्यसत्यामपां सत्यांच, अनवद्यामवर्कशाम ।
समुपया संदिग्धां, गिरं भापत प्रज्ञावान् ॥ २॥