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प्रमाद - परिहार
कि एकवार भी विषय मार्ग में गमन करने से पुनः पुनः संताप करना पड़ता है, अनेक भवों में भी संताप करना पड़ता है ।
मूलः - तिरो हु सि अण्णवं महं, किं पुए चिट्ठासे तीरमागयो । भितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम ! मा पमायए । २८
छाया:-तीर्णो ह्यसि श्रीवं महान्तं किं पुनस्तिष्ठसि तीरमागतः । भित्र पारं गन्तु, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २८ ॥
शब्दार्थ:--- हे गौतम! तुमने विशाल सागर को पार कर लिया है, फिर किनारे पर आकर क्यों रुक रहे हो ? पहले पार पहुंचने के लिए शीघ्रता करो, एक भी समय का प्रमाद मत करो ।
भाष्यः - चतुर्गति रूप संसार विस्तीर्ण लागर के समान है । जैसे कोई वलवान पुरुष भी अपनी भुजाओं से सागर को पार नहीं कर सकता, उसी प्रकार अपने वल से संसार को पार करना संभव नहीं है। समुद्र पार करने के लिए जहाज की जरूरत पड़ती है और संसार को पार करने के लिए धर्म की आवश्यक्ता होती है ।
संसार-सागर का सांगोपाङ्ग रूपक पहले वतलाया जा चुका है । मनुष्य भव, श्रार्यक्षेत्र, धर्म श्रवण का सुअवसर और धर्मश्रद्धा की प्राप्ति होजाना मानों संसार-सागर के तट के निकट पहुंच जाना है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तथा नरक निर्यच, देव आदि पंवेन्द्रिय संबंधी नाना पर्यायों में भ्रमण करतेकरते अत्यन्त कठिनाई से पूर्वोक्त साधनों की प्राप्ति होती है । इस विषय का विवेचन यथावसर किया जा चुका है । यहां उसे दोहराना अनावश्यक है । धर्म श्रद्धा और धर्मस्पर्शता जिसे प्राप्त होगई है, वह विशाल सागर को पार कर चुका है। उसे अव थोड़े से ही पुरुषार्थ की आवश्यकता है । यदि थोड़ा सा पुरुषार्थ किया गया तो किनारा प्राप्त हो जायगा और फिर कभी इस अथाह संसार- सागर में नहीं आना पड़ेगा | अगर किनारे आकर जरा सी असावधानी की गई, एक कदम आगे न चढ़ाया तो, बस पिछला समस्त पुरुषार्थ व्यर्थ बन जायगा । फिर उसी अपार सागर में पढ़ना पड़ेगा और फिर न जाने कब, किस प्रकार उद्धार होगा। कब उसे पार करने का सुयोग मिलेगा |
अनादि काल से जीव सुख की खोज में, दुःखों से वचने के लिए प्रयत्न कर रहा है । उसके प्रयत्न में विघ्न वाधाओं का बाहुल्य है । न जाने कितने पूर्व भव में संचित किये हुए पुण्य के परम प्रकर्ष से यह अवसर मिला है। इसे हाथ से न जाने दो । इसका उपयोग करलो । थोड़ा-सा चल और लगायो । किनारा पाने के लिए शीघ्रता करो - ढील मत करो | एक समय का भी प्रमाद न करो । एक ही समय में चाजी हाथ से चली जा सकती है । अतएव श्रम भाव में विचर कर वह साध लो, जिसे साधने के लिए संयम को ग्रहण किया है और जो योगियों का परम श्रमि मत है ।