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... प्रमाद-परिहार श्रादि संयम-मार्ग में अग्रसर होने में जो वाधक होते हैं, वे भाव कंटक कहलाते हैं। द्रव्य कंटक पैर में चुभते हैं और भाव कंटक अन्तरात्मा में चुभते हैं । द्रव्य कंटक क्षणिक कष्ट पहुंचाते हैं, भाव.कंटक एक बार घुमकर जन्म-जन्मान्तर में घोर वेदना पहुंचाते रहते हैं । द्रव्य कंटक बंवूल आदि वृक्षों में लगते हैं, भाव कंटक हृदय-प्रदेश में ही उगते हैं । द्रव्य कंटक स्थूल हैं और उनसे बचना कठिन नहीं है, भाव कंटक सूक्ष्म हैं और उनसे बचना अत्यन्त कठिन होता है । द्रव्य कंटक लुभावने नहीं होते . भाव कंटक लुभावने होते हैं । द्रव्य कंटक शरीर का छेदन करते हैं, भाव कंटक अात्मा को-छात्मा के पुनीत संयम को छेद डालते हैं।
द्रव्यकंटक चुभने पर उस से जो शारीरिक वेदना होती है, उसे यदि बिना व्याकुल हुए सहन किया जाय तो पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा होती है। निर्जरा होने से कर्मों का भार हलका हो जाता है । चढ़ा हुआ ऋण उतर जाता है। भाव कंटक नवीन कर्म-बंध के कारण होते हैं । उनले श्रात्मा का बोझ बढ़ता है। वे नवीन ऋण चढ़ाते
द्रव्य कंटकों का उद्धार करना सरल है, पर भाव-कंटकों का उद्धार करना उन्हें निकाल फेंकना, दुष्कर कार्य है। द्रव्य कंटक स्वभावतः असाताकारी प्रतीत होते हैं इसलिए उनसे सभी सावधान रहते हैं, पर भाव कंटक मोही जीवों को साताकारी प्रतीत होते हैं, इसलिए वे उनसे बचने का प्रयास नहीं करते।
इस प्रकार द्रव्यकंटकों की अपेक्षा भाव कंटक अनन्त गुणा अधिक भयंकर है। . जो महापुरुष उन कंटकों को हृदय प्रदेश से हटा देते हैं, वही संयम के कण्टकहीन पथ पर अग्रसर होकर अपने लक्ष्य पर पहुंच पाते हैं।
भगवान् , इन्द्रभूति से कहते हैं-तू ने कंटक सहित पथ का त्याग कर दिया श्रर्थात मिथ्यात्व तथा अविरति आदि का तू परित्याग कर चुका है और महालय अर्थात मोक्ष के मार्ग पर अवतीर्ण हुआ है। इस मार्ग पर अवतीर्ण होकर के तू उसे भी शोध-शोध कर तय कर रहा है, अर्थात् संयम-मार्ग में, शुद्धि का ध्यान रखकर चल रहा है, सो ऐसा करते हुए प्रमाद न करो।
श्री इन्द्रभूति की कथा प्रसिद्ध है। इन्द्रभूति भगवान महावीर के सन्निकट दीक्षित होने से पूर्व यज्ञ-याग श्रादि क्रिया काण्ड के समर्थक थे और स्वयं यज्ञ करते भी थे। हिंसात्मक यज्ञ मिथ्यात्व रूप है, अधर्म रूप है इसलिए श्रात्मा के लिए कंटक रूप है। इन कंटक रूप यज्ञ याग श्रादि क्रियाओं का त्याग करके उन्होंने श्री वईमान स्वामी का चरण-शरण स्वीकार किया था, इस अभिप्राय को लक्ष्य करके भगवान कहते हैं कि तू ने कण्टकाकीण पथ का अर्थात् हिंसा रूप मार्ग का त्याग करके अहिंसा रूप निष्कंटक पथ अंगीकार किया है। . इसके अतिरिक्त अन्य प्रत्येक दीक्षित होने वाला मुनि मिथ्यात्व और अविरति रूप कंटकों का त्याग करके ही संयम का पथ स्वीकार करता है, श्रतएव अन्य मनियों के लिए भी इस कथन की संगति होती है।