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प्रमाद - परिहार
भले ही उसका भोग करे पर कोई मनुष्य उसकी और आंख उठा कर भी नहीं देखना चाहता । इस्त्री प्रकार संसार संबंधी जिन भोगोपभोगों का त्याग कर दिया है, वे वमन के समान हैं । कोई भी विवेक शील त्यागी पुरुष उन्हें पुनः ग्रहण करने की आकांक्षा नहीं कर सकता । अगर कोई ऐसी इच्छा करता है तो उसे काक - कूकर शादि निकृष्ट प्राणियों के समान समझना चाहिए। वह उत्तम पुरुष नहीं है ।
संसार में दो ही प्रधान आकर्षण है - स्त्री और धन । शेष आकर्षण इन्हीं के पीछे हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए ही जगत् में प्रारंभ - परिग्रह श्रादि करने पड़ते हैं । इसलिए सूत्रकार ने यहां इन दोनों का ही ग्रहण किया है ।
अथवा भार्या सजीव है और धन निर्जीव है । दोनों उपलक्षण हैं । भार्या शब्द से माता, पिता, बन्धु, वहिन, पुत्र, पौत्र, मित्र यादि समस्त संजीवों का उपलक्षण करना चाहिए और धन शब्द से मणि, रत्न, सुवर्ण श्रादि सब निर्जीव पदार्थों का ग्रहण कर लेना चाहिए ।
तात्पर्य यह है कि संसार के सारे वैभव को विभाव परिणाति का मूल कारण समझकर एकबार तुमने त्याग दिया है । उसका त्याग करके अनगार अर्थात् गृहहीन अवस्था धारण की है। इसे सदा स्मरण रखो। अपनी इस प्रशस्त त्याग भावना को निरन्तर वृद्धिंगत करते रहो । त्याग वृत्ति को उच्चता की और ले जाओ। उसे नीचे की और मत खिसकने दो। इस प्रकार निरन्तर यत्न शील रहो । इसमें एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो ।
मूल:- न हु जिसे अज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए ।
संपई नेयाउए पहे, समयं गोयम ! मा पमाय ॥२५॥
छाया: न खलु जिनोऽद्य दृश्यते, बहुमतो दृश्यते मार्गदर्शक । सम्प्रति नैयायिके पथि, समर्थ गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २४ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम! आज जिन नहीं दृष्टिगोचर होते किन्तु रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग का दर्शक और बहुतों का माननीय उनका शासन दृष्टिगोचर होता है, ऐसा कहकर पंचम काल के लोग धर्म ध्यान करेंगे । ऐसी दशा में इस समय मेरी विद्यमानता में, न्याय -मार्ग अर्थात् संयमपथ में एक समय मात्र के लिए भी प्रमाद न करों ।
भाग्यः - काल-चक्र के मुख्य दो विभाग हैं- (१) उत्सर्पिणी और (२) श्रवसर्पिणीं यह काल-चक्र अनादि काल ले घूम रहा है और अनन्त काल तक घूमता रहेगा । उत्सर्पिणी के समाप्त होने पर अवसर्पिणी काल प्रारंभ होता है और श्रवसर्पिणी काल का अन्त होने पर उत्सर्पिणी का प्रारंभ हो जाता है । दोनों काल दसदस कोटा - कोटि सागरोपम के होते हैं ।
जिस काल में शुभ पुद्गलों की वृद्धि और प्रशुभ पुद्गलों की हानि होती है यह उत्सर्पिणी अथवा विकासकाल कहलाता है। इस काल में मनुष्यों का सुख, आयु,