________________
दसवां अध्याय
[ ३६७ ]
चल, आदि बढ़ते हैं । इसके छह श्रारे इस प्रकार हैं - (१) दुःखमदुःखमा (२) दुःखमा (३) दुःखमसुखमा (४) सुखमदुःखमा (५) सुखमा (2) सुखमसुखमा ।
जिस काल में अशुभ पुद्गलों की वृद्धि और शुभ की हानि होती है वह अवसर्पिणी काल कहलाता है। तात्पर्य यह है कि श्रवसर्पिणी काल में मनुष्यों की श्रायु क्रमशः कम होती है, शरीर की श्रवगाहना न्यून होती जाती है, वल क्षीण होता जाता है और धर्म भावना न्यून से न्यूनतर होती चली जाती है । यह हास का समय है । इसके भी छह आरे हैं । उन चारों के नाम वही है, पर उन्हें विपरीत क्रम से गिनना चाहिए । अर्थात पहले सुखमसुखमा, फिर सुखमा, आदि ।
इन छह आरों में से तृतीय शारे के अन्त में और चौथे आरे में ही चौ तीर्थकरों का जन्म होता है और वे जगत के जीवों को श्राध्यात्मिक उपदेश देकर सन्मार्ग प्रदर्शित करते हैं। पंचम आरा आरंभ होते ही निसर्गतः मुक्ति का द्वार चंद हो जाता है ।
भगवान् महावीर चतुर्थ श्रारे के अंतिम भाग में हुए हैं । उस समय पांचवां आरा आरंभ होने को ही था । अतः उसे सन्निकट जान कर भगवान् ने उसी पंचम धारे की उपेक्षा यहां बतलाया है कि, आज अर्थात् पांचवें आरे में, जिन अर्थात् तीर्थकर नहीं हैं, फिर भी सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी मोक्ष - मार्ग का प्रकाश करने वाला, तथा बहुतों द्वारा माननीय उनका शासन है, ऐसा समझ कर पंचम काल में उत्पन्न होने वाले भव्य जीव धर्म का आचरण करेंगे ।
कर
तात्पर्य यह है कि पंचम श्रारे में तीर्थंकर का अभाव होने पर भी, केवल तीर्थके शासन की विद्यमानता होने से ही मुमुक्षु जीव धर्म की श्राराधना करेंगे । ऐसी अवस्था में, इस समय तो मैं तीर्थकर स्वयं विद्यमान हूँ । तव नैयायिक पथ में अर्थात् श्रात्मा को सिद्धि प्रदान करने वाले मार्ग पर चलने में, समय मात्र का भी प्रमाद करना उचित नहीं है ।
मूल :- अवसोहिय कंटगायह, प्रोइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए ।।
छाया:- अवशोध्य कण्टकपर्थ, श्रवतर्णोऽसि पन्थानं महालयम् । गच्छसि मार्ग विशोध्य, समयं गौतम् ! मा प्रमादीः ॥ २६ ॥
शब्दार्थ :- हे गौतम् ! तुम कंटकाकीर्ण पथ का परित्याग कर के विशाल मार्ग ( राज(मार्ग) को प्राप्त हुए हो । उस मार्ग का विशोधन करके गमन करने में समय मात्र भी प्रमाद न करो 1
भाग्यः - सुक्ति-लाभ के लिए सर्व प्रथम कण्टकपथ का परिहार करना श्रनिचार्य हैं। कटक दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य कण्टक और भाव कण्टक। यहां संयम का प्रकरण है अतः भाव फेंटकों का ही ग्रहण करना चाहिए । मिथ्यात्व श्रविरति