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... अमाद-परिहार भोगने में यात्मा असमर्थ नहीं ठहरता। कुछ लोग आत्मा को ब्रह्मखरूप प्रतिपादन .. करते हैं उनके मत से आत्मा को संयम आदि की साधना करले की ज्या श्रावश्यकता है ? इत्यादि अनेक मिथ्या सिद्धान्तों से जीच के अपने स्वरूप में ही भ्रम उत्पन्न हो जाता है, जिससे वह अपने परल कल्याण का सच्चा मार्ग नहीं खोज पाता।
ऐसी अवस्था में विविध प्रकार के एकान्तवादों ले बचकर, वास्तविक वस्तुस्वरूप के प्रतिपादक, वीतराग सर्वक्ष अगवान् द्वारा उपदिष्ट अनेकान्त रूप उत्तम धर्म के श्रवण करने का अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। पुण्य की अत्यधिक प्रवलता होने पर ही उत्तम कुल में जन्म, निर्धन्य शुरुश्नों का समागम आदि उत्तम धर्मश्रवण की सामग्री मिलती है। जिन्हें यह सामग्री मिली है उन्हें इस अवसर को गँवाना नहीं चाहिए और एक सलय मान भी प्रसाद न करके धर्म की आराधना करनी. चाहिए। मूल लधण वि उत्तम सुई, सहहणा पुणरवि दुल्लहा ।
मिच्छत्तनिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए १६ छाया:-लब्धवाऽपि उत्तमां श्रुति, श्रद्धानं पुनरपि दुर्लभम् ।
मिथ्यात्वनिषेवको जनः, समयं गौतम ! सा प्रमादीः ॥ १४ ॥ - शब्दार्थः- हे गौतम ! उत्तम धर्म-श्रवण की प्राप्ति होने पर भी उसका अहान दुर्लभ .
है, क्योंकि लोग मिथ्यात्व का सेवन करते देखे जाते हैं। इसलिए श्रद्धान-लाभ होने पर समय मात्र का भी प्रमाद न करो।
भाष्यः- पूर्वोक्त स्यावादमय तशा अहिंसा प्रधान धर्म के श्रवण का अवसर प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धान होना अत्यन्त कठिन है। अनेक लोग सत्य धर्म का । श्रवण करते हुए भी उस पर श्रद्धान नहीं करते और मिथ्यात्व का सेवन करते हैं। - यहां श्रद्धान की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । धर्म-श्रवण कर लेने पर श्री जब तक उस पर सुदृढ़ प्रतीति न हो तब तक सस्यत्व का उदय नहीं होता . और वह श्रोता मिथ्याडष्टि बना रहता है। श्रद्धा का स्वरूप इस प्रकार कहा है
इदमेवेशसेव, तत्वं नान्यन्न चान्यधा।
इत्यकस्याय सासभोवत् सन्मार्गेऽसंशया रुचिः॥ , अर्थात् वास्तविक तत्व यही है और इसी प्रकार का है, अन्य नहीं है और . अन्य प्रकार का भी नहीं है, ऐसी तलवार की धार के पानी के समान, संशय रहित निश्चल श्रद्धा लन्मार्ग में अर्थात् वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट तत्व में होना चाहिए।
. मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का विवेचन पहले किया जा चुका है। वस्तुतः मिथ्यात्व ही संसार का सर्वप्रधान कारण है । वही कर्म बंध का हेतु है । उसके होते हुए मनुश्यत्व, आर्यत्व, धर्मश्रुति आदि सामन्त्री व्यर्थ ही होती है, अपितु अधिक अकल्याण का कारण बन जाती है । इसलिए सजे धर्म का श्रवण करके इस पर पूर्ण