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साधु-धर्म निरूपण.
के सदृश धर्म रूप जीवन का दाता हो [५] वायु के समान पाप रूपी दुर्गंध और पुराय रूपी सुगंध का ज्ञापक हो [६] वायु के समान किसी के रोके रुके नहीं [७' 'वायु के समान साधुं अपनी शान्तिप्रद वैराग्य रूप लहरों से विषय - - कषाय रूपी ताप का . विनाश करे और शान्ति प्रदान करे ।
इन चारह उपमानों का सात-सात प्रकार से विवेचन होने से साधु की ८४ उपमाएँ निष्पन्न होती हैं और इन उपमाओं में साधु के विभिन्न गुणों का निरूपण किया गया है ।
दोषों का परित्याग किये बिना गुणों में पूर्णता नहीं सकती । अतः श्राचार्य सम्पन गुण प्राप्त करने के लिए दोषों का परिहार अनिवार्य है । साधु के गुणों का यहां तक जो परिचय दिया गया है, उनसे विपरीत स्वरूप वाले दोषों का परित्याग करना श्रावश्यक है । तथापि सुगमता के लिए यहां असमाधिजनक कतिपय दोषों का उल्लेख किया जाता है :
(१) अत्यन्तत्वरा से गमन करना असमाधि दोष है ।
(२) प्रकाशपूर्ण स्थान में नेत्रों से भूमि का निरीक्षण किये बिना अथवा अन्धकारमय स्थान को रजोहरण से प्रमार्जन किये बिना चलना असमाधि दोष है ।
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(३) जिस स्थान को देखा या प्रमार्जन किया हो, उसपर न गमन आदि करके अन्य स्थान पर गमन आदि करे तो असमाधि दोष है ।
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(१) बैठने या सोने के पाट आदि आवश्यकता से अधिक रक्खे तो श्रसमाधि दोष होता है ।
(५) प्राचार्य, उपाध्याय, वयोवृद्ध, गुरु श्रादि ज्येष्ठ महापुरुषों को उनकी मर्यादा की रक्षा न करते हुए वचन बोलना समाधि दोष है ।
(६) वयःस्थविर, दीक्षास्थविर, श्रुतस्थविरं इत्यादि ज्येष्ठ मुनियों की मृत्यु की कामना करना असमाधि दोष है ।
(७) प्राणी, भूत, जीव और सत्व के विनाश की वांछा करना - उनका मरण चाहना समाधि दोष है ।
(८) सदा संताप युक्त रहना, क्षण-क्षण में क्रोध करना असमाधि दोप है । (६) पीठ पीछे किसी की निन्दा करना असमाधि दोष है ।
(१०) कल यह काम करूँगा, परसों वह काम करूँगा, इत्यादि प्रकार से भविष्य सम्बन्धी निश्चयात्मक भाषा बोलना असमाधि दोष है । क्योंकि भविष्य पर भरोसा नहीं किया जा सकता । संभव है कल होने से पहले ही आयु का अन्त हो जाय अथवा विशिष्ट बाघा उपस्थित हो जाय और वह कार्य न हो सके। ऐसी अवस्था में यह भाषा असत्य हो जाती है ।
(११) नवीन क्लेश उत्पन्न करना असमाधि दोष है ।