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प्रमाद-परिहार . मनुष्यों के अतिरिक्त तिर्यञ्चों श्रादि का जीवन भी नाशशील है । संसार में किसी का जीवन स्थिर नहीं रहता। फिर भी सूत्रकार ने यहां ' मणुाण जीवियं' अर्थात् मनुष्यों के जीवन के साथ ही वृक्ष के पत्ते की तुलना की है । इसका कारण यह है कि मनुष्य जीवन में ही प्रमाद का सर्वथा परिहार किया जा सकता है। मनुष्य ही अप्रमत्त बन सकता है। इसलिए उसे ही अप्रमत्त बनने की प्रेरणा की गई है। आगे भी इसी प्रकार समझना चाहिए। . मूल:-कुसग्गे जह अोस बिन्दुए, थोवं चिट्टई लम्बमाणए ।
एवं मणुप्राण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२॥ छाया:-कुशाग्ने यथाऽवश्याय बिन्दुः, स्तोक तिष्ठति लम्बमानकः। ..
एवं मनुजानां जीवितं, लमयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥२॥ ' शब्दार्थ:-हे गौतम ! जैसे कुश की नोंक पर लटकता हुआ ओस का बूंद थोड़ी ही देर ठहरता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है । इसलिए एक समय मान भी प्रसाद न करो।
भाष्यः-पूर्व गाथा में मानव-जीवन की अनित्यता का वर्णन करने के पश्चात् यहां दूसरी उपमा देकर फिर उसकी अनित्यता का निरूपण किया गया है। इसका अभिप्राय मानव-जीवन की अत्यन्त अनित्यता का प्रदर्शन करना है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जीवन अत्यन्त अस्थिर है । पूर्वी के अग्रभाग पर श्रोस का जो बिन्दु लटक रहा है वह दीर्घ काल तक नहीं ठहरता, कतिपय क्षणों के पश्चात् ही वह मिट्टी में मिल जाता है, उसी प्रकार मानव-जीवन भी कतिपय क्षणों में ही-समाप्त हो जाता है।
शरीर एक पीजरे के समान है। इसमें जीव रूपी हंस बंद है। पीजरे के अनेक द्वार खुले हुए हैं। एसी दशा में हंस कभी भी उड़ सकता है। उसके उड़ने में कोई
आश्चर्य नहीं होना चाहिए । आश्चर्य तो यह हो सकता है कि वह अब तक उड़ क्यों नहीं गया।
. मनुष्य संसार में सदा ही देखता रहता है कि दूसरों का जीवन अानन-फानन समाप्त हो जाता है। एक व्यक्ति चैठा वाते कर रहा है, हास्यविनोद में पूर्णतया निमग्न है, उसी समय हृदय की गति अवरुद्ध हो जाती है और जीवन का अन्त श्रा जाता है। कोई बैठा-बैठा अचानक जमीन पर लुढ़क पड़ता है, कोई ठोकर लगते ही चल बसता है। जीवन की इस प्रकार क्षण भंगुरता को प्रत्यक्ष करता हुश्रा भी मनुष्य अपने को अजर-अमर-सा मानता है। वह नाना प्रकार की व्यवस्थाएं सोचता रहता है, अन-गिनते मनोरथों का सेवन करता है। कल यह करेंगे, परसों वह करेंगे। एकवर्ष बाद ऐसा करेंगे, दस वर्ष बाद वैसा करेंगे । पर पल की प्रतीति नहीं। काल सहसा सामने आजाता है और संकल्पों का सत्यानाश करके जीवन का ध्वंस कर डालता है।
मृत्यु एक क्षण भर की भी भिक्षा नहीं देती । तीर्थकर भी अपनी आयु बढ़ा नहीं