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साधु-धर्म निरूपण (३१) अातुरस्मरण-रोगजन्य कष्ट होने पर अथवा परीषह और उपसर्ग प्राप्त होने पर अपने श्रात्मीयजनों का स्मरण करना ।
(३२) मूलीका भक्षण करना । (३३) आईक अर्थात् अदरख का उपयोग करना। (३४) इश्वराड अर्थात् गन्ने के टुकड़े लेना-खाना । (३५) सुरण आदि कन्दों का आहार करना । (३६) जड़ी-बूटी आदि का उपयोग करना । (३७) सचित्त फल खाना । (३८) बीज का भक्षण करना।
(३६-४५) सेंचल नमक, सैंधा नमक, सामान्य नमक, रोम-देशीय नमक, समुद्री नमक, पांशुतार और काला नमक, इन सव का भक्षण करना । मूली से लगाकर नमक पर्यन्त सचित्त वस्तुओं का सेवन करना अनाचीर्ण है।
(४६) घूपन-शरीर को या वस्र प्रादि को धूप देना। (४७) वमन-बिना कारण मुँह में उंगली डालकर या औषधि लेकर वमन करना। (४८) वस्ती कर्म--गुदा मार्ग से कोई वस्तु पेट में डालकर दस्त करना। (४६) विरेचन--निष्कारण जुलाब लेना। . . (५०) अंजन--आँखों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए काजल लगाना,सुरमा लगाना (५१) दन्तवर्ण--दांतों का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए दांत रंगना उनपर रंगचढ़ाना . (५२) शारीरिक वल-वृद्धि के लिए व्यायाम करना।
यह बावन अनाचीर्ण संयम के सबल दूषण हैं । इनका सर्वथा त्याग करके साधु को संयम का पालन करना चाहिए।
जो मनि इन तथा इसी प्रकार के शास्त्रोक्त अनों का त्याग करता हुश्रा, निराकल एवं कषायहीन होकर संयम का पालन करता है, वह परम कल्याण का भागी होता है।
शाकलता, निर्बलता से उत्पन्न होती है । घोर से घोर परीषह और उपसर्ग उपस्थित हो जाने पर भी साधु को चट्टान की तरह दृढ़ रहना चाहिए । ऐसे प्रसंगों पर जिसका चित्त सुदृढ़ बना रहता है, उसका परीषह कुछ विगाड़ नहीं कर सकते। श्राधे परीषह और उपसर्ग को साधु अपने चित्त की स्थिरता से ही जीत लेता है। मूलः-जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं ।
तमेव अणुपालिज्जा, गुणे अायारय सम्मए ॥१७॥ छायाः था अदया निष्क्रान्तः, पर्यायस्थानमुत्तमम् ।
___तामेवानुपालयेत् , गुणेषु प्राचार्यसम्मतेषु ।। १७ ॥ . शब्दार्थ:-जिस श्रद्धाके साथ उत्तम दीक्षा का पद प्राप्त करने के लिए निकला है, उसी श्रद्धा से तर्थिकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट गुणों का पालन करना चाहिए। ...