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सवां अध्याय
[ ३६१ ] (5) कवित्व प्रभावना-काव्यकला अत्यन्त उच्चश्रेणी की कला है। मनुष्य के हृदय पर वह गहरा और स्थायी प्रभाव डालती है। वीर रस का काव्य श्रवण करके अनेक निराश और उत्साहहीन व्यक्तियों की भुजाएँ फड़कने लगती है । शृंगार मय काव्य सुनने से श्रोता की वासनाएं अंकुरित हो जाती हैं । करुणा रस की कविता का श्रवण नयनों से नीर का निर्भर प्रवाहित कर देता है । अतएव काव्य-रचना द्वारा जिन शासन का महत्व बढ़ाना कवित्व-प्रभावना है।
___यह स्मरण रखना चाहिए कि काव्य कला है और कला का सन्मान, मनुष्य को उन्नत बनाने में, उसे देवत्व की ओर आकृष्ट करने में तथा उसके सुप्त सुसंस्कारों को जागृत करने में है। जो कला धर्म का पोषण नहीं करती. प्रत्युत धर्म से विपरीत दिशा में जाती है, वह कला की वास्तविकता पाने की अधिकारिणी नहीं है । संस्कारवश पतन की ओर जाते हुए मनुष्य को जो एक धक्का और लगाती है वह कुरुप कला किसी काम की नहीं है। अतएव कवित्व के द्वारा वैराग्य रस का झरना बहाया जाय, धर्म एवं अध्यात्म की सरिता प्रवाहित की जाय, प्रातःस्मरणीय महापुरुषों के पावन चरितों का ग्रंथन किया जाय, इसीमें कला की सार्थकता है। प्रभावना के लिए मुनि को इसी प्रकार कवित्व का उपयोग करना चाहिए।
इस प्रकार प्रभावना के आठ भेद हैं । यही प्रभावना के सच्चे स्वरूप हैं। आधुनिक काल में प्रभावना की वास्तविकता बहुत अंशों में न्यून हो गई है और उसने वाह.रूप धारण कर लिया है । इस और विशेष लक्ष्य दिया जाना चाहिए।
अन्यान्य आचार्य-सम्मत गुणोंमें साधु के लिए दी गई उपमाओं के योग्य बना भी सम्मिलित है । यथा
उरगगिरिजलणसागरनहमलतरुगणसमो य जो होई।
भमरमियधरणीजलरुह-रविपवणसयो य सो समणो ॥ अर्थात् जो सर्प, पर्वत, अग्नि; समुद्र, श्राकरश, तरु, भ्रमर, मृग, पृथ्वी, कमल सूर्य और वायु के समान होता है, वह श्रमण है ? साधु की यह चारह उपमाएँ हैं और प्रत्येक को सात-सात प्रकार से घटित किया गया है । जैसे
(२) सर्प-(१) जैसे सर्प दूसरों के बनाये हुए घर में रहता है, स्वयं घर नहीं बनाता उसी प्रकार साधु अन्य के लिए बनाये हुए घर में निवास करे । (२) जैसे अगंधन कुलोत्पन्न सर्प त्यागे हुए विप का भक्षण नहीं करता इसी प्रकार साधु त्यागे हुए भोगों सो न भोगे (३) साधु की गति, सर्प की गति के सामन सरल । मोक्ष के अनुकूल होनी चाहिए । (४) जैसे सर्प सीधा बिल प्रवेश करता है इसी प्रकार साध आहार का कौर सीधा मुँह में उतारे (४) जैसे सर्प उतारी हुई केंचली-फो फिर धारण नहीं करता इसी प्रकार. साधु त्यक्त गृहस्थी को फिर ग्रहण न करे (६) सर्प के समान साधु दोष रूप कण्टकों से सदा सावधान रहे । (७) जैसे साँप से लोग भयभीत होते हैं इसी प्रकार लब्धिमान् साधु से देवता भी डरते हैं।