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नववां अध्याय
[ ३४५ ] इस प्रकार समताभाव की आराधना करता हुआ जो मुनि विचरता है एवं आहार पानी की गवेषणा करता है उसी का साधुत्व स्थिर रहता है । इसका व्यतिरेक रूप अर्थ यह है कि जो वन्दना करने पर अभिमान का अनुभव करता है और वन्दना न करने पर क्रुद्ध हो जाता है, उसकी साधुता स्थिर नहीं रहती, क्योंकि वह अपने संयम को अपने अभिमान कषाय की पुष्टि के लिए उपयोग करता है, उससे लौकिक लाभ उठाना चाहता है।
वन्दना करने या न करने की अवस्था में साम्यभाव का उपदेश उपलक्षण मात्र है। उससे अन्यान्य सभी प्रतिकूल और अनुकूल समझे जाने वाले व्यवहारों का ग्रहण करना चाहिए । यदि कोई पुरुष किसी भी कारण से आवेशयुक्त होकर साघु को दुर्वचन बाले, शारीरिक कष्ट देवे. शस्त्र का प्रहार करे या जीवन से च्युत करदे तो भी साधु को उस पर वही भाव रखना चाहिए जो भाव साधु वन्दना-नमस्कार करने वाले भक्त श्रावक पर रखता है। इस प्रकार साधुत्व की स्थिरता के लिए सास्यभाव अनिवार्य है। . . मूल:-पण्णसमत्ते सदा जए, समताधम्ममुदाहरे मुनि।
सुहमे उ सया अलूसए, णो कुज्झे गो माणि माहणे छाया:-प्रज्ञ समालः सदा जवेत्, समतया धर्ममुदाहरेन्मुग्निः ।
सूचमे तु अलूपकः, नक्रुद्धयेन्न मानी माहनः ॥ १३ ॥ . शब्दार्थः-पूर्ण विद्वान् मुनि सदा यतनापूर्वक कषाय आदि पर विजय प्राप्त करे। समभाव से धर्म का उपदेश करे और सूक्ष्म-चारित्र में भी विराधक न हो। वाड़ना की जाय तो भी क्रोधित न हो और सत्कार करने पर भी अभिमान न करे।
भाज्य-यहां पर भी शास्त्रकार ने मुनि को अपने चारित्र का पालन करने के लिए समताभाव की आवश्यकता प्रकट की है।
सच्चा साधु वह है जो ध्रुत का विशिष्ट अध्ययन करके प्रज्ञाशाली बने, और समभाव पूर्वक धर्म का उपदेश करे । इसके अतिरिक्त न केवल वाह्य और स्थूल श्राचार का निर्दीप पालन करे अपितु सूक्ष्म और आन्तरिक श्राचार में भी दोप न लगने दे।
वाह्य श्राचार श्रान्तरिक शुद्धि का निमित्त है। अंतरंग अशुद्ध हो और उसकी शुद्धता के लिए प्रयत्न न किया जाय, केवल लोक-दिखावे के लिए बाह्य श्राचार का पालन किया जाय तो साधुत्व स्थिर नहीं रहता। श्रतएव साधु को अपने सम्पूर्ण सूक्ष्म स्थूल, अंतरंग वहिरंग, प्राचार का पालन करना चाहिए । प्रति लेखना आदि बाह्य क्रियाओं का भी यथा समय अनुष्ठान करना चाहिए और उचम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचिन्य एवं ब्रह्मचर्य श्रादि धर्मों का भी सदा श्राराधन करना चाहिए।