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[.१८४.. . .... ............... .. अात्म-शुद्धि के उपाय
छाया:-धो हृदो ब्रह्म शान्तितीर्थ, अनाविल अात्मप्रसन्नलेश्यः ।
यस्मिन् स्नातो विमलों विशुद्धः, शुशीतीभूतः प्रजहाभि दोषम् ॥ २४ ॥ - शब्दार्थ:-मिथ्यात्व आदि के विकारों से रहित स्वच्छ, आत्मा के लिए प्रशंसनीय
और अच्छी भावनाएँ उत्पन्न करने वाले धर्मरूपी सरोवर और ब्रह्मचर्यरूपी शान्तितीर्थ है। जहां पर स्नान करके निर्मल और विशुद्ध होकर तथा शान्त-राग-द्वेष आदि से . रहित-होकर मैं निर्दोष-शुद्ध बन जाता हूं। ... .. . . . . . . . . . . .
- भाष्या-श्रात्म-शुद्धि के विषय में इतर मतावलम्बियों की. धारणाओं में संशोधन करके वास्तविक आत्म-शुद्धि का स्वरूप प्रदार्शत करने के लिए सूत्रकार ने इस गाथा: में प्राध्यात्मिक स्नान का वर्णन किया है। . ....: लोक में प्रायः स्नान को. आत्म-शुद्धिका कारण समझा जाता है। इसीलिए दूर-दूर देशो से यात्रा करके, लोग जिस. जलाशय को अपनी धारणा के अनुसार पवित्र समझते हैं उसमें स्नान करते हैं और स्नान करके प्रात्मा को पवित्र मानते हैं। कोई-कोई तो गंगा श्रादि नदियों में जीवित ही डूब मरते हैं और उसे जल:समाधि लेना कहते हैं। जो लोग जीवित अवस्था में जल समाधि नहीं लेते, उनकी मृत्यु के अनन्तर उनके पुत्र पौत्र आदि कुटुम्बीजन उनकी अस्थियां गंगा, यमुना आदि जलाशयों में डालते हैं। अस्थियों का जलाशय में डालना स्नान का ही एक रूप है और इससे यह समझा जाता है कि जिसकी अस्थियां पवित्र जलाशय में क्षेपण की, जाती हैं उसकी आत्मा पवित्र हो जाती है । इस प्रकार की अनेक मिथ्या धारणाएँ जगत् में फैल रही है । इन धारणाओं का निराकरण करना इस गाथा का उद्देश्य है और साथ ही यह बताना भी कि श्रात्म शुद्धि के लिए किस प्रकार का स्नान उपयोगी । और आवश्यक है। संक्षेप में इस विषय पर विचार किया जाता है। .........
श्रास्तिकों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि आत्मा और शरीर भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। श्रात्मा अरूपी, अमूर्तिक और.भूतों से भिन्न स्वतन्त्र अनन्त गुणात्मक सत्ता है और शरीर रूपी, मूर्तिक और भूतात्मक है। दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न होने के कारण दोनों की अशुद्धि-मलीनता-भी भिन्न-भिन्न प्रकार की है। . श्रात्मा की मलीनता अज्ञान, कषाय आदि सूक्ष्म रूप और शरीर की मलीनता स्थूल . मैल आदि रूप है । जब दोनों की मलीनता भिन्न-भिन्न रूप है: तो शरीर को निर्मल बनाने से ही श्रात्मा निर्मल कैसे हो सकता है? जैसे कपड़ा धोने से शरीर नहीं : चलता. उसी प्रकार शरीर को धोने से प्रात्मा नहीं धुल सकता। शरीर को निर्मल . बनाने से यदि श्रात्मा में भी निर्मलता का प्रादुर्भाव हो जाता तो संसार' के सभी मनुष्य स्नान करते ही मुक्ति प्राप्त कर लेते। और मनुष्य ही क्यों, जल में निवास . करने वाले मत्स्य श्रादि जलचर जीव भी आत्मिक विशुद्धता प्राप्त कर लेते । चल्कि जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जल में ही निवास करने के कारण जलचर जीवों को, कभी-कभी स्नान करने वाले मनुष्यों की अपेक्षा भी अधिक उच्च पद की प्राप्ति होती। . ऐसी अवस्था में शान, ध्यान, दान, संयम, तपस्या आदि आत्म-शोधक उपायों का