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ठा-अध्याय
[ २२५ । बीतराय और अनन्त शक्तिशाली बन जाता है, जो जीवन्मुक्तदशा को प्राप्त कर लेता है वह श्रात्मा अर्हन् पदवी का पात्र होता है। अर्हन् भगवान में मुख्य बारह गुण होते हैं । जैसे- (१) अनन्तज्ञान (२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त चारित्र (४) अनन्त तए (५) अनन्त बल (६) अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व (७) वनऋषभनाराच संघयन (८) समचतुरस्त्र संस्थान (8) चौतीस अतिशय (१८) पैंतीस वाणी के गुण (११) एक हजार श्राट उत्तम लक्षण और .१२) चौसठ इन्द्रों द्वारा पूज्यतम् ।।
अहन भगवान् अठारह प्रकार के दोषों से रहित होते हैं । वे दोष इस प्रकार हैं--(१) मिथ्यात्व (२) अजान (३) मदं (1) क्रोध (५) माया (६) लोभ (७) रति (८) अरति. (६) निद्रा (१०) शोक (११) असत्य भाषण (१२ चौर्य कर्म (१३) मत्सर (१४) अय (१५) हिंसा (१६) प्रेम (१७) क्रीड़ा (१८) हास्य । इन अठारह दोपों का महन्त में सम्पूर्ण रूप से प्रभाव होता है और इनके प्रभाव से प्रकट होने वाले गुण परिपूर्ण रूप में व्यक्त हो जाते हैं, जिनका उल्लेख अभी किया गया है।
अर्हन्त भगवान् को केवल चार अघातिक कर्म शेष रहते हैं, जिनके कारण वे शरीर में विद्यमान रहते हैं । इन कर्मों का नाश होने पर वही सिद्ध परमात्मा बन्द जाते है। ऐसे अरिहन्त भगवान को देव समझना लस्यग्दर्शन का पहला रूप है।
सच्चे साधु वह हैं जो पूर्ण रूप से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महावतों का पालन करते हैं । भिक्षोप जीवी होते हैं, निष्काम • भाव से तपस्या, जान, ध्यान आदि पवित्र अनुष्ठानों में संलग्न रहते हैं, अनगार होते
हैं, पैदल चलते हैं, नंगे पैर, नंगे सिर रहते हैं, साम्यभाव का अवलम्बन करके सांसारिक बखेड़ों से सर्वथा दूर रहते हैं। इनका स्वरूप और चारित्र भागे विस्तार से बताया जायगा। ऐसे साधु ही सब्जे साधु हैं। इन पर श्रद्धान् करना सम्यग्दर्शन का दूसरा रूप है। .
राग-द्वेष आदि पूर्वोक्त अठारह दोषों को जीतने वाला 'जिन' कहलाता है। जिन सर्वश और वीतराग होते हैं। सर्वज होने के कारण उनमें श्मशान का लेशमात्र नहीं होता और वीतराग होने के कारण कंपाय का सर्वथा ही प्रभाव हो जाता है। अंजान और कपाय का अभाव हो जाने के कारण जिन भगवान् का तत्व-निरूपण सत्य, यथार्थ ही होता है। अतएव जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित दयामय धर्म, और अनेकातमय तत्व ही वास्तविक है, इस प्रकार दृढ़ श्रद्धान करना सस्यग्दर्शन का तीसरा
तीन प्रकार की श्रद्धा, सम्यग्दृष्टि पुरुप में इतनी सुदृढ़-अनिश्चल होती है कि उसे कोई भी, यहां तक कि देव-दानव भी भंग नहीं कर सकता । शास्त्रों में ऐसे अनेक उदाहरण है, जिनमें सस्यग्दृष्टि श्रावकों को, सम्यग्दर्शन से च्युत करने का देवताओं ने प्रयास किया है, पर वे अपनी श्रद्धा से रंच मात्र भी विचलित नहीं हुए।
सम्यस्त्व की प्राप्ति दो प्रकार से होती है-(१) निसर्ग से और (२) अधि. गम से । विसर्ग ले नर्थात् विना गुरु नादि के उपदेश के जो सस्यन्दर्शन उत्पन्न होता