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सातवां अध्याय -
[ २५५. ] से बचने का सदैव ध्यान रखता है । श्रावक विरोधी हिंसा का भी प्रागार रखता है। यदि कोई श्रावक राजा, मंत्री या सेनापति है और उसके देश पर कोई आक्रमण करता है तो वह देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए शस्त्र उठाता है। इसी प्रकार यदि कोई डाकू या अन्य शत्रु उस पर या उसके कुटुम्ब आदि पर हमला करता है अथवा अन्याय का प्रतीकार करने के लिए जब शस्त्रप्रयोग की आवश्यकता समझता है तब वह शस्त्र ग्रहण करता है इस प्रकार की विरोधी हिंसा स्थूल प्राणातिपात विरमण बत की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती।
अलवता, जब हिंसा अनिवार्य होती है तभी वह इस प्रकार की हिंसा में प्रवृत्त होता है। प्राचीन काल में अाक्रमण करने से पहले, जिस पर आक्रमण किया जाता था उसे समस्या सुलझाने के लिए शान्तिपूर्ण उपायों का अवलम्बन करने की सूचना दे दी जाती थी। उसका उद्देश्य यही था कि हिंसा के बिना ही यदि प्रयोजन सिद्ध होने की संभावना हो तो हिला का प्रयोग न किया जाय, क्योंकि ऐसा करने से वह हिंसा निरपराधी की हिंसा हो जायगी और श्रावक निरपराधी की हिंसा का त्यागी होता है । पहले सूचना देने पर भी यदि अन्यायी व्यक्ति अपने अन्याय का प्रतिकार नहीं करता तो वह अपराधी हो जाता है और उस अवस्था में उसकी हिंसा सापराधी की हिंसा कहलाएगी। इस हिंसा का श्रावक श्रागार रखता है । सारांश यह है कि युद्ध से पहले सूचना देने के नियम में सापराधी और निरपराधी की हिंसा का भेद ही कारण है, और इस भेद पर श्रावक का अहिंसाणुव्रत टिका हुआ है। जैन शास्त्रों का यह विधान प्राचीन काल में प्रायः सर्वसम्मत बन गया था और किसी रूप में आज तक चलता आ रहा है, यद्यपि आज कल वह निष्प्राण बन गया है।
श्रावफ निरर्थक हिंसा से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहता है। वह गृहस्थी के प्रत्येक कार्य इस प्रकार सम्पादन करता है कि जिस से अधिक से अधिक हिंसा से बच सके। उदाहरणार्थ-सच्चा थावक रात्रि में दधि का विलोवन नहीं करताकराता अर्थात् छाछ नहीं बनाता, भोजन नहीं बनाता, रात्रि भोजन नहीं करता, तीक्षण झाडू से जमीन नहीं बुहारता आदि । क्यों कि ऐसा करने से त्रस जीवों की हिंसा की संभावना रहती है । इसी प्रकार मल-मूत्र आदि.अशुचि पदार्थों से व्याप्त पाखाने में शौच क्रिया करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि इससे असंख्यात सस्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है। यही नहीं, किन्तु उपदंश और प्रमेह आदि रोग के रोगियों के पेशाब पर पेशाब करने से उपदंश आदि रोग भी हो जाते हैं । मत्कुण आदि जीवों का बध करने के लिए वस्त्रों को, पट्टों को अथवा पलंग आदि को उष्ण जल में डालना या अन्य प्रकार से उनकी निर्दयतापूर्ण हिंसा करना भी श्रावक के योग्य कर्तव्य नहीं है । चूल्हा, चक्की, ईधन, वस्त्र, पात्र श्रादि-आदि गृहोपयोगी पदार्थों को विना देखे-भाले काम में लाने से मी त्रस जीवों की हिंसा होती है। अतएव पापभीरु श्रावक छानों का प्रायः उपयोग नहीं करते, घुनी हुई लकड़ी का उपयोग नहीं