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सातवां अध्याय
[ २८३ ] अधिवेक के अतिरेक से शरीर-पोषण को जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं वे उचितअनुचित, न्याय-अन्याय तथा धर्म-अधर्म का भेद भूलकर किसी भी उपाय का अवलम्बन करके शारीरिक सुख प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं । विवेकी जीव प्रात्महित के अनुकूल उपायों से ही शरीर की रक्षा करते हैं। यह भाव व्यक्त करने के लिए सूत्रकार ने 'समुद्धरे' पद का प्रयोग किया है, जिसका प्राशय यह है कि निरवद्य वृत्ति से अर्थात् निष्पाप उपायों से ही शरीर-पोषण करना शाहिए । मूला-दुल्लहा उ मुहादाई, मुहाजीवी वि दुल्लहा ।
मुहादाई मुहाजीवी, दो विगच्छति सोग्गई ॥११॥ छायाः-दुर्लभस्तु मुधादायी, मुधाजीव्यपि दुर्लभः ।
मुधादायी मुधाजीवी, द्वावपिगच्छतः सुगीतम् ॥ ११ ॥ शब्दार्थ:--निष्काम बुद्धि से देने वाला और निष्काम बुद्धि से जीने वाला-दोनों दुर्लभ हैं । निष्काम बुद्धि से देने वाले और निष्काम बुद्धि से जीने वाला-दोनों सद्गति में जाते हैं।
भाष्यः-सूत्रकार यहां दाता और दानगृहीता की विशेषता प्रदर्शित करते हुए, दोनों को प्राप्त होने वाले फल का निर्देश करते हैं ।
सांसारिक विषय भोगों की कामना से अतीत होकर, शुद्ध वुद्धि से-निष्काम आवना ले या अनासक्त चित्त से किया जाने वाला कार्य वास्तविक फल प्रदान करता है। इस प्रकार की भावना में विषयों की अभिलाषा को स्थान नहीं मिलता, और इसी कारण उस कार्य की महत्ता बहुत बढ़ जाती है । निष्काम कर्म की बड़ी महिमा है । जो लोग विषय-भोग की प्राप्ति के लिए, इस लोक में धन-वैभव, पुत्र, पौत्र, श्रादि पाने के लिए अथवा परभव में स्वर्ग के सुख पाने की कामना से प्रेरित होकर दान
आदि धर्म-कृत्य करते हैं, वे वास्तव में धर्म-कृत्य नहीं करते वरन् एक प्रकार का सौदा करते हैं, व्यापार करते हैं और वृथा धर्म का प्राडस्बर करते हैं। जैले वणिक् अपने पास से कुछ धन लगा कर, अधिक धन पाने के लिए, दुकान करता है, उसका धन लगाना धर्म नहीं है, इसी प्रकार अधिक धन-सम्पत्ति या दिव्य ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिए थोड़े से धन का त्याग करने वाला व्यक्ति भी एक प्रकार का व्यापार ही करता है । उसका दान, दुकान में पूंजी लगाने के समान है अतएव वह धर्म नहीं कहला सकता। सच्चे दान का स्वरूप यही है कि
'स्वस्याति सर्गो दानम् अर्थात किसी वस्तु पर से अपना ममत्व हटा लेना-उसका त्याग कर देना दान है । जहां त्याग की हुई वस्तु के द्वारा अधिक प्राप्त करने की अभिलापा है वहां • ममता का त्याग नहीं है, बल्कि ममता की वृद्धि है और इस कारण वह दान सच्चा दान नहीं है।