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लवां अध्याय
[ ३३६ ] ईख, एरंड, बेंत, बांस, आदि के झाड़ पव्वया या पर्व कहलाते हैं । जमीन फोड़ कर निकलने वाले छोटे पौधे-जैले कुकरमुता आदि कुहण कहलाते हैं। कमल, सिंघोड़े श्रादि जल में ही उत्पन्न होने वाली वनस्पति को जल वृक्ष कहा गया है। गेहूँ, जौ, जवार, बाजरी, शालि, मक्की, आदि औषधि में गर्भित हैं। जिस धान्य के बराबरचराबर दो हिस्ले नहीं हो सकते उन्हें लहा धान्य और जिनके दो हिस्ले होते हैं, जैसे चना, मूंग, उड़द, श्रादि-वह कठोल धान्य कहलाते हैं । यह सब औषधि के ही अन्तर्गत हैं । मूले की भाजी, मैथी की भाजी आदि के वृक्षों को हरित काय समझना चाहिए।
प्रत्येक वनस्पति जब उत्पन्न होती है, उसकी कोषले लगती हैं, तब उसमें अनन्त जीव होते हैं। उसके सुख जाने पर उल में जितने बीज होते हैं उतने ही जीव समझना चाहिए, क्योंकि प्रत्येक वीज योनिभूत जीव हैं ।
- साधारण वनस्पति में मूली, अदरख, भालू, कांदा, लहसुन, गाजर, शकरकन्द, सूरणकन्द, बजरीकंद, सूसली, अमरवेल, हल्दी आदि का समावेश है। साधारण वनस्पति के, सुई की नोंक पर शा जाय, इतने छोटे से हिस्से में अनन्तानन्त जीवों का सद्भाव होने से यह वनस्पति अत्यन्त पाप का कारण है । धर्मशील पुरुषों को इस वनस्पति का कदापि भक्षण नहीं करना चाहिए । वनस्पति काय का दूसरा नाम पयावच्च थावर काय भी है।
अहिंसा के प्रति मुनि कितने जागरूक रहते हैं, यह बात इस कथन से स्पष्ट हो जाती है । वास्तव में वही पुरुष मुनि पद का अधिकारी है जिसके हृदय से अहिंसा का अविरल और अखण्ड स्रोत प्रवाहित होता हो । एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मनुष्य आदि सभी जीवधारियों पर जिसके अन्तःकरण में करुणा की भावना हो और वह भावना गहरी बन गई हो। मूलः-महुकारसमा बुद्धा, जे भवति अपिस्सिया।
नाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ॥११॥ छाया:-मधुकरसमा बुद्धा, ये भवन्त्यनिश्रिताः।
नाना पिण्डरता दान्ताः, तेनोच्यन्ते साधवः ॥११॥ शब्दार्थः-जैसे चमर विभिन्न फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस लेता है, उसी प्रकार, जिन्होंने इन्द्रियों का दमन किया है, जो अनिश्रित हैं, ऐसे ज्ञानीजन नाना पिंडों में, उद्वेग्य ... रहित होकर रत होते हैं, इस लिए वह साधु कहलाते हैं।
भाप्यः-साधु के प्राचार का प्ररूपरा करते हुए, स्थावर जीवों की यतना का विधान पहले किया गया है । यहां फिर जीव रक्षा के लिए आहार संबंधी नियम का निरूपण किया है।
स्याहार की निप्पत्ति करने में हिंसा अनिवार्य है। अशिकाय वायुकाय, जलकाय