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साधु-धर्म निरूपण वायु काय के जीवों का घात होने से हिंसा का पाप लगता है। अतएव वायुकाय की हिंसा से सर्वथा विरत मुनि वायु की उदीरणा का सर्वथा त्याग करे । ऐसा करने वाला ही सच्चा साधु है।
वायु की उदीरणा के लिए पंखा उपलक्षण मात्र है। इससे उन समस्त साधनों को ग्रहण करना चाहिए जिनले हवा की जा सकती है । जैसे-वस्त्र,पत्र,हाथ, फूंक श्रादि। -
वायु की उदीरणा से वायुकाय की हिंसा के अतिरिक्त साधु में साताशीलता का दोष भी उत्पन्न होता है। सच्चा साधु कायक्लेश को अपना भूषण समझता है । वह .. गर्मी आदि से घबराता नहीं है। इस प्रकार की दुर्बलता उसके निशर भी नहीं फटक सकती। अतएव श्रमण वायुकाय की यतना के लिए पंखा श्रादि के द्वारा कभी न स्वयं वायु की उदीरणा करता है और न दूसरे से कराता है।
वायुकाय का दूसरा नाम शास्त्रों में सुमति थावर काय बतलाया गया है। झंझा वात, मंडलवायु. गुंडल वायु, धन वायु, तनु वायु. आदि समस्त प्रकार की वायु शस्त्र-परिणत होने से पूर्व सचित्त है और इनकी यतना सदैव यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
साधु वनस्पतिकाय का प्रारंभ भी नहीं करते और न कभी उसका भक्षण करते हैं। बीज में वनस्पतिकाय ही है अतः शास्त्रकार ने उसके त्याग का भी विधान किया है।
__ वनस्पतिकाय के मुख्य दो भेद हैं--(१) प्रत्येक वनस्पति और (२) साधारण , वनस्पति । जिस एक वनस्पति रुप शरीर में एक ही जीव स्वामी के रूप में रहता है वह प्रत्येक वनस्पति कहलाती है । जिस वनस्पति रूप एक शरीर में अनन्तानन्त जीव . स्वामी रूप में रहते हैं वह वनस्पति साधारण कहलाती है । तात्पर्य यह है कि कोई कोई वनस्पति ऐसी हैं जिसमें अनन्तानन्तं जीव रहते हैं, वे सब जीव उस वनस्पति के आश्रित नहीं है, किन्तु उसे अपना शरीर बनाकर रहते हैं अर्थात् एक शरीर में . अनन्तानन्त जीवों का वास है।
___ प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद है- (१) वृक्ष (२ गुच्छा (३) गुल्फ (४) लता (५) वल्ली (६) तृण (७) वल्लया (८) पञ्चया (६) कुहण (१०) जलवृक्ष (११) औषधि और (१२) हरितकाय ।
. वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-कोई एक बीज वाले और कोई बहु वीज वाले। आँवला, आम, जामुन, बेर श्रादि एक बीज वाले वृक्ष हैं और अमरूद, अनार, बिल्क, निम्बू श्रादि अनेक चीज वाले वृक्ष हैं । तुलसी, जवाला, रिंगनी श्रादि को गुच्छ कहते हैं। जूही, केतकी, केवड़ा, आदि फूलों के झाड़ गुल्म कहलाते हैं । अशोकलता, पद्म लता आदि पृथ्वी पर फैलकर ऊँचे चढ़ने वाली वनस्पति लता है । तरोई, ककड़ी, करेला, श्रादि की वेल वल्ली कहलाती है। दूर्वा तथा अन्य प्रकार का घास तृण कहलाता है । जो वृक्ष ऊँचे जाकर गोलाकार बनते हैं उन्हें वल्लया कहा गया है, जैसे सुपारी खजूर, नारियल आदि वृक्ष । पर्व, पोर या गांठ जिनके बीच में होती है ऐसे