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साधु-धर्म निरूपण मूलः-पुढवि न खणे न खणावए,
सीबोदगं न पिए न पियावए । अगणिसत्थं जहा सुनिसियं,
तंन जले न जलावए जेस भिक्खू ।। - छाया:-पृथिवीं न खनेन्न खानयेत , शीतोदकं न पिवेन पाययेत् ।
अग्निशस्त्रं यथा सुनिशितम् , तं न ज्वलेन ज्वालयेत् यः स भिक्षुः ।। ६ ।। शब्दार्थः--जो पृथ्वी को न स्वयं खोदे, न दूसरों से खुदवावे, जो शीत अर्थात् . सचित्त जल न स्वयं पीए, न दूसरों को पिलावे, जो अत्यन्त तीक्ष्ण अग्नि रूप शस्त्र को न स्वयं जलाए, न दूसरों से जलवावे, वही सच्चा भिक्षु है।
भाष्यः-रात्रि भोजन विरमण व्रत का विधान करके यहां स्थावर जीवों की हिंसा के त्याग का विधान किया गया है।
मुनि, त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की हिंसा का मन, वचन, काय से पूर्ण त्यागी होते हैं। अतएव यहां स्थावर जीवों की यतना का उपदेश दिया गया है। स्थावर जीव पांच प्रकार के हैं-(१) पृथ्वीकाय (२) जलकाय (३) तेजस्काय (8) वायुकाय और (५) वनस्पतिकाये । इन पांच स्थावरों में से प्रकृत गाथा में श्रादि के तीन कायों के स्थावरों की यतना बताई है।
पृथ्वी को खोदने से पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा होती है और दूसरों को श्राशा देकर खुदवाने से भी हिंसा के पाप का भागी होना पड़ता है। यही नहीं, पृथ्वी खोदने से पृथ्वी पर आश्रित त्रस जीवों की भी हिंसा अनिवार्य है।
जल जब तक अचित्त नहीं हो जाता तब तक वह एक प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों का शरीर है। उले स्वयं पीने से या अन्य को पिलाने से स्थावर जीवों की हिंसा का अपराधी बनना होता है । अतएव साधु सचित्त जल न स्वयं पीते हैं, न दूसरों को पिलाते हैं।
शास्त्र-परिणत होने पर जो जल अचित्त हो जाता है, और जिसे साधु के निमि अचित्त नहीं किया जाता उसी का उपयोग साधु करते हैं। श्राग्नि के संसर्ग सयां प्रत्य क्षारमय पार्थिव पदार्थों के संयोग से, पूर्ण रूपेण अचित्त हुए जल को ही मनि ग्रहण करते हैं। श्रचित्त जल भी मर्यादा के अनुरूप ही उन्हें ग्राह्य होता है । अधिक समय का होने पर वह गरम जल फिर सचित्त हो सकता है और अधिक समय के घोवन में त्रस जीवों की उत्पत्ति हो सकती है। जहां सचित्त-श्रचित्त और जीवोत्पत्ति विषयक सन्देह होता है वह जल भी मुनि ग्रहण नहीं करते। . .
अग्नि एक भयंकर शस्त्र है। जैसे लोहमय शस्त्र प्राणियों का घात करते हैं, उसी प्रकार अग्नि संयोग होने पर अन्य काय वाले जीवों का घात करती है। अतएव ।
Durama-...
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