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नवा अध्याय
[ ३३५ ] पूर्वोक्त पांच व्रत जिनागम में महावत कहलाते हैं । रात्रि भोजन विरमण का शास्त्रों में महावत के नाम ले उल्लेख नहीं है किन्तु उले व्रत कहा है। इसका कारण यह है कि श्रावकों के लिए भी रात्रि भोजन का त्याग आवश्यक है। महावत के नाम से इसका उल्लेख किया जाता तो यह व्रत श्रावकों के लिए लागू न होता। अतएक श्रावकों के लिए रात्रि भोजन त्याप्य है, यह प्रकट करने के लिए इसे महाबत न कह कर सामान्य बत ही कहा है।
किली-किसी ग्रंथ में रात्रि भोजन को छा अणुव्रत कहा गया है, लो उचित है। छठा अणुव्रत होने से भी वह श्रावकों के लिए आवश्यक हो जाता है और जब श्रावकों को रात्रि भोजन त्याज्य है तो लाधुओं को तो उसकी त्याज्यता स्वतः सिद्ध हो जाती है।
__ रात्रि भोजन ले जल जीवों की हिंसा होती है, साथ ही भोजन के साथ त्रस जीवों के पेट में चले जाने से मांस-अक्षण भी हो जाता है। इन धार्मिक दोषों के अतिरिक्त शारीरिक दोष भी रात्रि भोजन से होते हैं और स्वास्थ्य में भी विकार उत्पन्न होता है।
इल प्रकार विचार करने पर रात्रि भोजन अनेक दोपों का घर प्रतीत होता है। धर्मनिष्ठ श्रावक भी इसका सेवन नहीं करते तो भला मुनि यह निन्दनीय भाचरण कैसे कर सकते हैं?
रात्रि भोजन के सम्बन्ध में पहले श्रावकाचार के निरूपण में विचार किया जा चुका है। पूर्वोक्त समस्त भयंकर दोषों का विचार करके प्रत्येक श्रावक को और साधु को सब प्रकार के रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए।
मूल में 'सब्बाहारं न भुजंति' ऐसा कहा है। इसका अर्थ है-सव प्रकार का भोजन नहीं करते हैं। इस वाक्य का दुरुपयोग करके कोई दुषित अर्थ यह न समझे के सब प्रकार का भोजन नहीं करते अर्थात् किसी प्रकार का-एक-दो तरह का भोजन कर लेते हैं।
ऐला दुरर्थ कई स्थलों पर देखा जाता है। जैसे-न हिस्यात् सर्वभूतानि' अर्थात लव जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, इस वाक्य से अनेक स्मृतिकार हिंसा का पोषण करते हुए यह निकालते हैं कि खास-खास जीवों की हिंसा करने में पाप नहीं है। इस प्रकार का अर्थ यहां नहीं समझना चाहिए । यहां मुनियों के श्राचार का प्रकरण है अतः अन्न, पान, खाद्य श्रादि चारों प्रकार के आहार का सर्वथा निषेध किया है, और यही युक्ति एवं भागम के अनुकूल अर्थ है।
साधुओं को सब प्रकार के त्याग के विधान से यह प्रतीत होता है कि श्रावक यदि लब प्रकार का रात्रि भेाजन न त्याग सके तो उसे भी एकदेश त्याग अवश्य करना चाहिए।