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नववां अध्याय
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न धारण करने से सम्भाव रखने से परिग्रह के प्रति लालसा नहीं उत्पन्न होती । इस लिए अपरिग्रह व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन करने के लिए इन्द्रियोंके विषयों संबंधी राग-द्वेष की निवृत्ति होना आवश्यक है । जो रागभाव एवं द्वेषभाव से श्रतीत हो जाते हैं वे ही अपना कल्याण करते हैं ।
मूलः - जं पिवत्थं व पायं वा, कम्बलं पायपुच्छणं । तं पि संजमलज्जट्टा, धारेति परिहिंति य ॥६॥
छाया:-- यदपि वस्त्रं वा पानं वा पानं वा, कम्बलं पादपुञ्छनम् । तदपि संयम लज्जार्थम् धारयन्ति परिहरन्ति च ॥ ६ ॥
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शब्दार्थ : - मुनिजन जो वस्त्र, पात्र, कम्बल अथवा पैर पोंछने का वस्त्र धारण करते ई-अथवा मर्यादा युत वस्त्रादि में भी अल्प रखकर अवशेष वस्त्रादि का त्याग कर देते हैं वह अप और मर्यादा युत वस्त्रादि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही हैं -- लोभ या राग के कारण नहीं ।
भाष्यः - परिग्रहत्याग महाव्रत के विषय में विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सूत्रकार ने यह गाथा कही है ।
इससे पहली गाथा में बताया गया था कि खाद्य सामग्री संग्रह करने वाला लाधु भी गृहस्थ की श्रेणी में आ जाता है । इस कथन से यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब भोजन-सामग्री केवल एक रात्रि भर रखने से साधुत्व नष्ट हो जाता है तो वस्त्र - पात्र आदि रखने से साधुत्व किस प्रकार टिक सकता है ? भोजन की भांति वस्त्र - पात्र आदि भी यदि परिग्रह ही है तो उसके धारण करने से साधुता की मर्यादा भी नहीं रहनी चाहिए । इल शंका का समाधान अगली गाथा में किया है, किन्तु समाधान का बीज इस गाथा में विद्यमान है ।
साधु जो वस्त्र रखते हैं, वह शरीर के प्रति अनुराग होने के कारण, उसे साता पहुंचाने के लिए नहीं, वरन् लज्जा - निवारण के लिए तथा संयम की रक्षा के लिए रखते हैं । इसी प्रकार पात्र, कम्बल आदि भी संयम के समुचित निर्वाह के लिए ही धारण करते हैं । यह सब उपकरण शास्त्रोक्त मर्यादा के अनुसार परिमित रूप में ही ग्रहण किये जाते हैं । पात्र आदि उपकरणों के दिना संयम की रक्षा और वाह्य शुद्धि आदि का यथायोग्य निर्वाह नहीं हो सकता है ।
इस विषय का विशेष स्पष्टीकरण आगे दिया जाता है ।
मूल:- न सो परिग्गहो वृत्तो, नायपुत्त्रेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो तो, इईं वृत्तं महोसिया ॥७॥
छाया:-न सः परिग्रह उक्तः, ज्ञातपुत्रेण प्रायिया ।
मूर्च्छा परिग्रह उक्तः, इत्युक्तं महर्षिणा ॥ ७ ॥