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साधु-धर्म निरूपण . अपने अधीन बना लेता है। धीरे-धीरे बढ़ता हुआ वह अनन्त हो जाता है और मनुध्य उससे श्राकृष्ट होकर, पथ से विचलित हो जाने की चिन्ता न करता हुआ, उसी के पीछे-पीछे भागता रहता है। परिग्रह, लोभ का कार्य है और लोभ को बड़ाने का कारण भी है । परिग्रह का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-परिग्रह के पाश में पड़े हुए जीव परलोक में नष्ट होते हैं और अजान रूपी अंधकार में डूबे रहते हैं। परिग्रह इस लोक और परलोक में अत्यल्प सुख और विपुल दुःस्त्र रूप है । वह महाभय का कारण है और प्रगाढ़ कर्म रज को उत्पन्न करता है। वह दारुण है, कठोर है, असाताकारक है और हजारों वर्ष पर्यन्त भी भोगे विना वह (फल ) छूटता नहीं है।
परिग्रह परिभाषा-रहित है, शरणदाता नहीं है, उसका अन्त दुःखपूर्ण है, वह अध्रुव है अनित्य है, क्षणभंगुर है, पाप का कारण है, सत्पुरुषों के लिए अग्राह्य है, विनाश का मूल है, अतिशय बध-बंध तथा क्लेश का कारण है, उससे अनन्त संक्लेरा उत्पन्न होता है, वह लब प्रकार के दुःखों का जनक है।
अपरिग्रह व्रत का अनुष्ठान करने के लिए निम्नलिखित पांच भावनाओं का प्राचरण करना चाहिए
(१) श्रोत्रेन्द्रिय ले मनोहर एवं भद्र शब्द सुनकर उदासीन रहना चाहिए । हास्यपूर्ण शब्दों तथा स्त्रियों आदि के आभूषणों के शब्दों की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए, उनमें अनुरक्त नहीं होना चाहिए । इसी प्रकार अमनोज्ञ और पाप रूप वचन सुन कर रोष नहीं करना चाहिए। कोई गाली दे तो भी उस पर द्वेष-भाव नहीं लाना चाहिए । उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। श्राशय यह है कि मनोज्ञ और अमनोज शब्दों पर समताभाव रखना चाहिए।
(२) चतु इन्द्रिय के विषय में समभाव रखना चाहिए । मनोहर रूप देख कर अनुरत नहीं होना चाहिए और वोभत्ल रूप दिखाई देने पर द्वेष या घृणा का भाक नहीं उत्पन्न होने देना चाहिए।
(३) घ्राणेन्द्रिय के विषय में मध्यस्थवृत्ति रखनी चाहिए। सुगंध में अनु-- रक्त एवं दुर्गन्ध से द्विष्ट न होकर दोनों पर एक-ला भावना रखनी चाहिए।
- (४) जिह्वा इन्द्रिय के विषय में निस्पृद्ध होना चाहिए। सरस, स्वादिष्ट और मनोज्ञ भोजन-पान पाकर प्रसन्न होना और रूखा-सूखा, निःस्वादु आहार-पानी प्राप्त होने पर विवाद करना उचित नहीं है। दोनों प्रकार के भोजन पर समान भाव रखकर उखका उपभोग करना चाहिए ।
(५) सुन्दर, सुखद और लाताकारी स्पर्श प्राप्त होने पर हर्षित होना एवं कठोर कर्कश तथा असाताजनक स्पर्श का संलगे होने पर स्वेद करना योग्य नहीं है । निस्पृह वृत्ति, वीतराग भावना अथवा अनासक्ति ही साधु के प्राचार का भूषण है। प्रासक्ति पाप-बंध का कारण है और अनासक्त भाव से ही पाप होता है।
तात्पर्य यह है कि पांचों इन्द्रियों के मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषयोंपर राग-द्वेष ..