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सातवां अध्याय
। २८७ ] धर्म प्राचार है। इससे सदाचार का स्वरूप सहज ही समझ में आ सकता है। धर्म का लक्षण पहले अहिंसा, संयम और तप बतलाया जा चुका है अतएव सदाचार का भी यही लक्षण लिद्ध होता है । तात्पर्य यह है कि जिस आचार में अहिंसा, संयम और तप की प्रधानता होती है वही आचार सदाचार कहलाता है।
इस सदाचार ले विहीन पुरुष चाहे जितना काय-क्लेश करे, वह आत्मस्पर्शी न हो कर शरीरस्पर्शी ही होगा। केवल शरीरस्पर्शी आचार का प्रभाव शरीर पर ही हो सकता है, उससे श्रात्मा की विशुद्धि की संभावना नहीं की जा सकती। और श्रात्म-विशुद्धि के अभाव में आत्मा की रक्षा नहीं हो सकती।।
अनादि काल से आत्मा के साथ कषायों की जो कलुषता चढ़ी है वही दुःख का कारण है । वह कलुषता, विशुद्धता के द्वारा घुलती है । इसलिए दुःख से बचने के लिए भात्मिक शुद्धि की श्रावश्यकता है । विना नात्मिक शुद्धि के किसी भी प्रकार का वेष धारण करके और कोई भी दीक्षा धारण करके मनुष्य स्व-पर रक्षा में समर्थ नहीं हो सकता। . मूल:-अत्थंगयांम प्राइचे, पुरत्था य अणुग्गए ।
आहारमाइयं सव्वं, मणसा वि न पत्थए ॥ १४ ॥ . छाया:-अस्तंघत श्रादित्ये, पुरस्ताच्यानुद्गते ।
आहारमादिकं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत् ॥ १४ ॥ शब्दार्थः--सूर्य अस्त हो जाने पर तथा पूर्व दिशा में उदित न होने पर आहार आदि सभी पदार्थों को मन से भी न चाहे। ___ भाष्य:-प्रकृत गाथा में रात्रि भोजन के त्याग का विधान किया गया है। रात्रि में अंधकार होने के कारण, भोजन में तथा भोजन के पात्रों में यदि जीव उड़कर गिरते हैं अथवा चढ़ जाते हैं तो उनका दिखाई देना संभव नहीं है। कोई-कोई जन्तु तो इतने छोटे होते हैं कि विशेष सावधानी रखने पर ही दिन के तीन प्रकाश में दृष्टिगोचर होते हैं। वे रात्रि में किसी प्रकार भी दिखाई नहीं दे सकते । रात्रि में, बिना प्रकाश के अंधकार में भोजन किया जाय तो बड़े जीव भी दिखाई न देंगे और प्रदीप
आदि का प्रकाश किया जाय तो आसपास के सब जन्तु लिमटकर आ जाते हैं। इस प्रकार रात्रि भोजन किसी भी अवस्था में करने योग्य नहीं है। रात्रि भोजन अनेकानेक दोषों का घर है, घोर हिंसा का कारण है और न केवल धार्मिक दृष्टि से वरन् स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सर्वथा हेय है कहा भी है। . . .
मेघां पिपीलिका हन्ति यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका बान्ति, कुष्टरोगश्च कोकिलः ॥ करटको दारुखण्डम्च वितनोति गलव्यथाम् । व्यञ्जनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥ ..