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श्राठवां अध्याय करने लगते हैं । वह सभ्य और प्रतिष्ठित पुरुषों के समीप भी नहीं फटक सकता । . इन अनर्थों से बचने के लिए सूत्रकार ने अमोघ धन बताया है कि 'नो रक्खसीसु गिझिज्जा' अर्थात् इन राक्षसियों में अनुराग न करो-इनसे बचते रहो। . मूलः-भोगामिसदोसविसन्ने, हियनिस्सेयस बुद्धिवोच्चत्थे ।
बाले य मंदिये मढे, बज्झइ मच्छिया व खेलम्मि । · छायाः-भोगामिषदोपविषण्णः, हितनिश्रेयलबुद्धिविपर्यस्तः ।
बालश्च मन्दो मूढः, बध्यते मक्षिकेव श्लेषमणि ॥ ६ ॥ शब्दार्थः--भोग रूपी मांस में, जो आत्मा को दूषित करने के कारण दोष रूप है. आसक्त रहने वाला तथा हितमय मोक्ष को प्राप्त करने की बुद्धि से विपरीत प्रवृत्ति करने बाला, धर्म-क्रिया में आलसी, मोह में फंसा हुआ, अज्ञानी जीव, कर्मों से ऐसे बँध जाते हैं जैसे मस्खी कम में फँस जाती है।
आष्यः-विषय-लोग आत्मा को दूषित करने वाले हैं और उनमें जो श्रासक्त होता है बह मोक्ष के मार्म से विपरीत चलने लगता है, धर्मक्रिया में प्रमादशील बन जाता है, सूड़ बन जाता है और हेयोपादेय के विवेक से भ्रष्ट हो जाता है । तात्पर्य यह है कि विषय सोग उभयलोक में अहिलकारी है। इस लोक में विषयी मनुष्य एक दूसरे का शस्त्रों ले घात करते देखे जाते हैं । विषयासक्त पुरुष शस्त्रों को, धर्म को, और परस्परागत सदाचार को ताक में रख देता है। परलोक में महामोह रूपी घोर अंधकार से और यातना के कारणभूत नरक श्रादि स्थानों में पड़कर अपना अहित करता है। अतएव विषयभोग भयंकर हैं, दारुण हैं, असाता के जनक हैं। श्रात्मा का हित चाहने वाले प्रत्येक पुरुष को इनसे निवृत्त होना चाहिए । जो लोग विषयभोग से निवृत्त नहीं होते उनकी वही दशा होती है जैसे कफ में फँसी हुई मक्खी की होती है। मूलः-सल्लं कामा विसं कामा, कामा अासी विसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जति दुग्गई ॥ १०॥ . छायाः-शल्यं कामा विषं कामाः, कामा श्राशी विषोपमा ।
- कामान् शर्थवमानर, अकामा यान्ति दुर्गतिम् ॥ १०॥ . . शब्दार्थ:--काम-भोग शल्य के समान हैं, काम-भोग विप के समान हैं, काम-भोग दृष्टि विष सर्प के समान हैं । काम-भोग की अभिलाषा करने वाले, कास-भोग न भोगने पर भी दुर्गति पाते हैं।
भाग्यः-कामलोग का वास्तविक स्वरूप बतलाते हुए सूत्रकार ने तीन उपमाएँ
. कामभोग शल्प अर्थात् काँटे के समान हैं। जैसे शरीर के किसी अंग में कोटा लगने पर समस्त शरीर ही वेदना से व्याकुल-सा रहता है और जब तक कांटा नहीं