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आठवां अध्याय
३१६ उस साहित्य का, एकान मन से, शान्त और एकान्त स्थान में बैठकर अध्ययन करना चाहिए। ऐसा करने से ज्ञान की बुद्धि होती है, भावना में प्रबलता आती है, हृदय स्वच्छ होता है और नवीन पावन विचारों से अनुपम आनन्द की उपलब्धि होती है।
साहित्य के अध्ययन में ब्रह्मचारी महापुरुषों के जीवन-चरित अवश्य पढ़ने चाहिए। उनसे ब्रह्मचारी को बड़ा सहारा, बड़ा बल मिलता है । उन्होंने ब्रह्मचर्य की साधना के लिए जिन उपायों का अवलम्बन किया था उनका हमें ज्ञान होता है। विपत्ति-काल में उन्होंने चहान की तरह दृढ़ता रखकर अपने पवित्र प्रण को, प्राणों की परवाह न करके निभाया, यह बात हमें भी शक्ति और दृढ़ता प्रदान करती है, ब्रह्मचारीवर्य सुदर्शन का चरित पढ़कर कौन प्रफुल्लित नहीं होता? उल महात्मा की प्रणवीरता किले साहस नहीं प्रदान करती? जब हम प्राणों की मोहममता का त्याग कर सुदर्शन को ब्रह्मचर्य पर स्थिर रहते देखते हैं तब हृदय में साहसकी वृद्धि होती है और ब्रह्मचर्य-रक्षा का प्रबल भाव उत्पन्न होता है।
अनेक पुरुष काम-राग-बर्द्धक पुस्तकें पढ़कर अपना समय ही व्यर्थ नहीं खोते, वरन् जीवन का भी सत्यानाश करते हैं । शृंगार रस से भरे हुए उपन्यास कहानी, काव्य आदि का पठन करने से सोई हुई काम-वालाना जाग उठती है और बह कभी-कभी पुरुष को लाचार करदेती है । आजकल के साहित्य में कुछ उच्छृखल लेखक अनेक प्रकार की गंदगी इधर-उधर से खोज कर भर रहे हैं । उस साहित्य का पठन करले ले पाठक का नैतिक पतन होते देर नहीं लगती। अतएव सात्विक साहित्य का ही अध्ययन करना चाहिए ।
(५) सिनेमा और नाटक देखने का विवेक-सिनेमा का श्रव अत्यधिक प्रचार बढ़ रहा है । सिनेमा के व्यवसायी अपने सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व को विस्मरण करके, व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर अधिकांश चित्र कुरुचिपूर्ण-कामोत्तजक ही तैयार करते हैं। उनमें अनेक प्रकारकी चिकारकारक भावभंगी का, कायिक कुचेष्टाओं का, राजस प्रेम का और अश्लील नाच-गान का प्रदर्शन होता है । यह प्रदर्शन जनता की नैतिक भावना पर कुठार-प्रहार कर रहा है । कोमल चित वाले चालकों और बालिकाओं को भी यह चित्र दिखाए जाते हैं । इससे उनका मन श्रारंभिक अवस्था में ही अत्यन्त दूषित हो जाता है । आश्चर्य है कि लोग विना सोचे-समझे, निर्लज होकर ऐसे चित्र स्वयं देखते और अपनी संतान को दिखलाते हैं । किन्तु ऐसे चित्र आंखों के मार्ग से अन्तस्करण में जहर पहुंचाते हैं और वह जहर नैतिकता एवं धार्मिकता का ससूल विनाश किये बिना नहीं रहसकता । राज्य-शासन यदि ऐसे चित्रा के प्रदर्शन की मनाई नहीं करता तो वह प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य पालन नहीं करता । वह प्रजा के विनाश का प्रकारान्तर से अनुमोदन करता है । प्रजा अपने सम्मिलित बल से यदि ऐसे चित्रों का बहिष्कार नहीं करती तो वह अपने और अपनी संतान के सर्वनाश का समर्थन करती है।
राजा या प्रजा जब तक इस घोर अभिशाप को दूर करने का प्रयत्न न करें तव