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साधु-धर्म निरूपण - स्वार्थ की मात्रा यहां तक भी सीमित नहीं है। मनुष्य इतना अधिक क्रूर वन गया है कि वह अन्य प्राणियों की हिंसा करके, उनके जीवन का अन्त करके, उनके शरीर से अपने पेट की पूर्ति करता है । इस क्रूरता के परिणाम स्वरूप 'जीवो जीवस्य जीवनम्' की लोकोक्ति प्रचलित हो गई है । इस लोकोक्ति का अर्थ यह होना चाहिए था कि एक जीव दूसरे जीव के जीवन का अत्यन्त सहायक है अर्थात् प्रत्येक प्राणी दूसरे सब प्राणियों के जीवन-निर्वाह में कारणभूत है । पर ऐसा न होकर जीवन का अर्थ 'भक्ष्य' समझा जाता है और लोग कहते हैं एक जीव दूसरे जीच का लक्ष्य है !
. सूत्रकार ने अहिंसा महाव्रत का स्वरूप समझाते हुए यहां अत्यन्त सुगम और सीधी युक्ति बताई है । प्राणी-वध घोर है, क्योंकि कोई भी प्राणी अपने वध की अभिलाषा नहीं करता। जो लोग इस युक्ति का महत्व स्वीकार नहीं करते उन्हें श्रात्म निरीक्षण करना चाहिए। यदि दूसरा व्यक्ति उनका वध करे तो क्या उन्हें इप्ट होगा नहीं, तो अन्य प्राणियों को भी वह इष्ट नहीं है। अतएव उनका वध करना भी पाप है, घोर है।
जैसे मनुष्य को जीवन प्रिय है, उसे जीवित रहने का अधिकार है, उसी प्रकार पशुओं को, पक्षियों को, कीटों-पतंगों को, वृक्ष, लत्ता आदि समस्त जीवों को अपना अपना जीवन प्यारा है, उन्हें जीवित रहने का अधिकार है। उनके जीवन का अंत करने का किसी को अधिकार नहीं हैं ।
मनुष्य अधिक शक्तिशाली और विवेकवान है, इसलिए उसे अन्य प्राणियों का वध करने का अधिकार है, यह सोचना अत्यन्त भ्रमपूर्ण है और भयंकर अन्याय है। फिर तो मनुष्यों में भी जो अपेक्षाकृत अधिक वल शाली होगा उसे अपने लाभ के लिए निर्बल मनुष्यों के वध का अधिकार होना चाहिए। इस प्रकार न्याय-नीति की प्रतिष्ठा होकर शक्ति की ही पूजा होने लगेगी और संसार घोर नरक बनेगा। वस्तुतः सबल मनुष्य के बल की सार्थकता निर्बल की सहायता करने में है, न कि उसे भक्षण कर जाने में । यही नीति पशुओं के प्रति, पक्षियों के प्रति तथा अन्य जीवधारियों के प्रति वर्ती जानी चाहिए।
तात्पर्य यह है कि संसार के समस्त प्राणियों को एक दूसरे के जीवन में सहा. यक होना चाहिए, दूसरे को कष्ट और अनिष्ट से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए, स्वयं जीना चाहिए और दूसरे को जीवित रहने देना चाहिए, अत्यन्त स्वार्थी बन कर अपने जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए अथवा अपनी क्षणिक तृप्ति के लिए किसी प्राणी को नहीं सताना चाहिए।
इस प्रकार जो प्राणीमात्र को अपना बन्धु समझता है वही सच्चा अहिंसक है। जिसके हृदय में यह बन्धुभाव पूर्ण रूपेण विकसित हो जाता है वह निम्रन्थ है, श्रमण है।
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. . . . . ... सामान्य रूप से जीव और प्राणी शब्द समानार्थक है, पर सूक्ष्म दृष्टि से उनके
अर्थ में कुछ भिन्नता है । द्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राणी कहते