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नववां अध्याय
। ३२७ } सत्य लोक में सारभूत है। समुद्र से भी अधिक गंभीर है, सुमेरु से भी अधि- . क निश्चल है, चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है, सूर्यमण्डल से भी अधिक दीप्तिमान है, शरद ऋतु के आकाश से भी अधिक निर्मल है और गंधमादन पर्वत से भी अधिक सुरभिमय है । समस्त मंन योग-जप-तप सत्य में प्रतिष्ठित हैं । सत्य के बिना इनकी सिद्धि नहीं होती । इस प्रकार सत्य की अद्भुत महिमा है । सत्य का स्वरूप समझकर सदा सत्य का ही सेवन करना चाहिए।
प्रमाद और कषाय के वश होकर अन्यथा रूप अथवा स्व-पर हानि करने वाले वचनों का प्रयोग करना असत्य भाषरण कहलाता है। असत्य मुख्य रूप से चार प्रकार का है-(१) सत् को असत् कहना (२) असत् को सत् कहना (३) अन्यथा स्थित को अन्यथा रूप कहना और (४) सावध कथन करना।
(२) विद्यमान पदार्थ का निषेध करना प्रथम प्रकार का असत्य है। जैसे नात्मा का अभाव बतलाना । स्वर्ग, नरक, परलोक और मोक्ष का अभाव कहना।
(२) जो वस्तु जैसी नहीं है उसका अस्तित्व वचन द्वारा प्रकट करना दूसरे प्रकार का असत्य है । जैसे ईश्वर में जगत् को निर्माण करने का स्वभाव न होने पर भी उस स्वभाव का सद्भाव कहना।
(३) वस्तु का स्वरूप वास्तव में अन्य प्रकार का है किन्तु उसे किसी अन्य रूप ही कहना । जैसे श्रात्मा शरीर-परिमित है किन्तु उसे सर्वव्यापक कहना या अणुपरिमाण घाला कहना। वस्तु मात्र अनेकान्तात्मक है पर एकान्त रूप कथन करना।
(४) चतुर्थ सावध वचन के तीन भेद हैं-पति, सावध और अप्रिय वचन । दुष्टतापूर्ण वचन बोलना, हास्य युक्त वचन बोलना और प्रलापमाय कथन करना गर्हित वचन कहलाता है । छेदन, भेदन, वध-बन्धन, व्यापार, चोरी आदि के विधान करने वाले वचन सावध वचन कहलाते हैं । अन्य प्राणियों को अप्रति उपजाने वाले भय का संचार करने वाले, खेद उत्पन्न करने वाले, वैर शोक और कलह करने वाले, तथा और किसी प्रकार संताप करने वाले वचन अप्रिय वचन कहलाते हैं। यह तीतों प्रकार के असत्य तथा पूर्वोक्त तीनों असत्य साधु को सर्वथा त्याज्य हैं।
असत्य भाषण के सर्वथा त्यागी मुनिराज हेयोपादेय का उपदेश करते हैं, उनके पापनिंदक वचन किसी श्रोता को अप्रिय भी लग सकते हैं, मांस-मदिरा आदि घृणित वस्तुओं के त्याग का उपदेश देने से कसाई, कलार, श्रादि को कष्ट पहुंचता है, ब्रह्म 'चर्य के उपदेश से स्वार्थ में बाधा पहुँचाने के कारण वेश्या को चुरा लगता है, इस प्रकार अनेक जीवों को मुनिराज का हितोपदेश अनिष्ट प्रतीत होता है, फिर भी उन्हें असत्य भाषण का दोष नहीं लगता है, क्योंकि उनका भाषण कषाय या प्रमाद से प्रेरित होकर नहीं है।
तात्पर्य यह है कि जो भाषण कपाय से प्रेरित होकर किया जाता है और जो , हिंसाकारक या असत् पदार्थ की प्ररूपणा करता है वह असत्य कहलाता है । मुनि
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