________________
आठवां अध्याय
[ ३२१ ] का परम साध्य है। उसके बिना जीवन अनुपयोगी है।
जिन्होंने सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया, वे महापुरुष अत्यन्त धन्य हैं, माननीय हैं, वन्दनीय हैं । जो एकदेश ब्रह्मचर्य पालते हैं वे भी धन्य हैं। किसी कवि ने कहा है-'परती लख जे धरती निरखें धनि हैं धनि हैं धनि हैं नर ते।' अर्थात् परस्त्री पर दृष्टि पड़ते ही जो पृथ्वी पर-नीचे की ओर देखने लगते हैं, वे पुरुष धन्य हैं, धन्य हैं धन्य हैं।' ब्रह्मचर्य की प्रशंसा करते हुए उचित ही कहा है
मेरू गरिठ्ठो जह पव्वयाणं, एरावणो सारबलो गयाणं ।
सिंहो बलिट्ठो जह सावयाणं, तहेव सालं पवरं वयाणं ॥ जैसे समस्त पर्वतों में मेरु बड़ा है, समस्त हस्तियों में एरावत बलिष्ठ है, वन्य पशुओं में सिंह बलवान् है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ व्रत है। • इस व्रत के आधार पर ही अन्य व्रत टिकते हैं। जो ब्रह्मवर्य व्रत से च्युत हो जाता है वह अहिंसा, सत्य आदि व्रतों से भी भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहता । अतएव ब्रह्मचर्य के महत्व को समझो, उसकी उपयोगिता का ज्ञान करो, उसकी विधिपूर्वक आराधना करो। यही निश्रेयस का मार्ग है, मुक्ति का द्वार है, प्राध्यात्मिक-विकास का साधन है और समस्त सुखों का भंडार है।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-पाठवां अध्याय समाप्तम्