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ब्रह्मचर्य-निरूपण निकल जाता, तब तक वह वेदना बनी ही रहती है । इसी प्रकार कामभोग की अभिलाषा होने पर तन-मन में व्याकुलता उत्पन्न होती है । इस प्रकार की विचित्र घेचैनी का अनुभव होता है और किसी भी काम में मन निमग्न नहीं होता। .
. इतने अंश में समानता होने पर भी दोनों में कुछ विषमता भी है । कांटा केवल एक ही लोक में किंचिन्मात्र दुःख देता है, पर कामभोग परलोक में भी पीड़ा पहुंचाता है। कांटा निकल जाने के पश्चात् थोड़ी देर में असाता मिट जाती है, पर कामभोग भोग लेने पर भी भोग की अभिलाषा नहीं मिटती है। जैसे अग्नि में घृत की आहुति देने से वह अधिक उग्र होती है उसी प्रकार विषयभोग भोगने से भोगामिलापा की वृद्धि ही होती है। कहा भी है
न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
दृविषा कृष्णवर्मैव भूय एवाभिवर्धते ॥ इस श्लोक का आशय ऊपर आ चुका है।
कामभोग विष के समान हैं। जैसे विष का भक्षण करने वाला पुरुष पहले मूर्छित होता है और अन्त में प्राण त्याग देता है, उसी प्रकार विषयभोग की इच्छा अन्तःकरण में उद्भूत होते ही मनुष्य पहले मोह-मुग्ध हो जाता है-हिताहित की पहचान नहीं कर सकता । अन्त में संयम रूप जीवन से हाथ धो बैठता है । विषभक्षण से शरीर को ही हानि पहुंचती है, आत्मा को नहीं । किन्तु विषयभोग से शारीरिक हानि होती है, आत्मिक हानि होती है, धर्म की हानि होती है, इसलोक में हानि होती है और परलोक में भी हानि होती है। अतएव विषयभोग विष की अपेक्षा भी अधिक भयानक है। कहा भी है
विषस्य विषयाणाञ्च, दृश्यते महदन्तरम् । . .
उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥ अर्थात् विष में और विषयों में यह बड़ा अन्तर है कि विष तो उपयोग करने के पश्चात् ही द्रव्य प्राणों का नाश करता है, पर विषय तो उनका स्मरण करते ही भाव प्राणों को नष्ट कर देते हैं।
कामदृष्टि विष सर्प के समान हैं । दृष्टि विष सर्प जिस पुरुष की ओर दृष्टि दौड़ाता है, उसी पर उसके विष का प्रभाव हो जाता है। यह सर्प समस्त सर्प-जाति में अत्यन्त भयंकर होता है। इस सर्प की दृष्टि से जैसे जीव के जीवन का अन्त हो जाता है, उसी प्रकार विषयभोगों की ओर दृष्टि जाने से ही जीवों के धर्म-जीवन की समाप्ति हो जाती है। . . सूत्रकार स्वयं विष आदि से काम की विशेषता प्रकट करते हुए कहते हैं कि, कामभोग न करने पर भी, केवल काम की कामना मात्र से ही दुर्गति की प्राप्ति होती है। ऐसे सर्वथा अहितकर, आदि और अन्त में असाता के उत्पादक काम का परि- . त्याग करना ही श्रेयस्कर है-इसी श्रात्मा का एकान्त विकास है। ...