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आठवां अध्याय
[ ३०६ ] पुरुष इन्हें सरलता से नहीं त्याग सकते । हाँ, जो सुव्रती साधु हैं वे इस अ-तर संसार सागर को वणिक की तरह तर जाते हैं अर्थात् विषय-भोग का सर्वथा त्याग कर देते हैं।
भाष्यः-जो महापुरुष ही चीर हैं, जिन्होंने अपने अत्यन्त शक्तिशाली मन पर विजय प्राप्त करली है, जो सम्यक् प्रकार से वीतराग भगवान् द्वारा प्ररूपित व्रतों का अनुष्ठान करते हैं, वहीं कामयोगों का त्याग कर सकते हैं । इसले विपरीत जो अधीर हैं अर्थात् जिनका चित्त चंचल है, आत्मनिष्ठ नहीं बन सका है, वे कामभोगों का त्याग नहीं कर सकते।
कामभोगों का त्याग करने के लिए मन की स्थिरता. अत्यन्त आवश्यक है। जो अपने मन को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं चलाते किन्तु मन के अनुसार आप चलते हैं-जो मन के दास हैं, इन्द्रियां जिन पर शासन करती हैं, वे कामभोगों से कदापि मुक्त नहीं हो सकते हैं। अतएव कामभोगों का त्याग करने के लिए मन को
और समस्त इन्द्रियों को अपने वश में करना चाहिए । इन्हें काबू में किये बिना विषयभोग से छुटकारा नहीं मिलता। मूलः-उवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥१४॥ छायाः-उपलेपो भवति भोगपु, अभोगी नोपलिप्यते ।
भोगी भ्रमति संसारे। अभोगी विप्रसुच्यते ॥ १ ॥ शब्दार्थः--भोग भोगने से कर्मों का बंध होता है । अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है, अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है।
__भाष्यः-भोग कर्म-बंध के कारण हैं । सर्वप्रथम जब भोगों को भोगने की अभिलाषा उत्पन्न होती है तब रागजन्य कमरे का बंध होता है । तदनन्तर मनुष्य भोग सामग्री संचित करने के लिए उद्यत होता है तो नाना प्रकार का प्रारंभ-समारंभ करता है । उससे भी कर्मों का बंध होता है । प्रारंभ-समारंभ करने पर भी यदि सामग्री का संचय न हुआ तो विविध प्रकार का पश्चात्ताप होता है, उससे भी कर्मचंध होता है । सामग्री-संचय हो गयी तो भोगोपभोग में मनुष्य ऐसा निमन्न वन जाता है कि उसे मानव-जीवन को सफल बनाने का ध्यान ही नहीं आता। रात-दिन विषयभोग में ही डूवा रहता है । इससे वह घोर कर्म-बन्धन करता है।
जो भोगों से विमुख रहता है, जिसने भोगों की निस्सारता और परिणाम में दुःख प्रदता को भलीभांति समझ लिया है, अतएव जो आत्म-समाधि में ही डूवा रहता है, उसके रागभाव न होने से वह कर्म से लिप्त नहीं होता।
कोई यह कह सकता है कि कर्म का लेप या अलेप होने से क्या हानि-लाभ है ? तो इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि भोगी भव-भ्रमण करता है और अभोगी संसार से मुक्त हो जाता है । एक पर्याय से दूसरी पर्याय में जाना भव