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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * निर्वाध प्रवचन
॥ आठवां अध्याय ।।
ब्रह्मचर्य-निरूपण
भगवान्-उवाच-. मूलः-श्रालयो थीजणाइएणो, थीकहा य मणोरमा ।
संथवो चेव नारीणं, तेसिं इंदियदंसणं ॥१॥ कूइयं रूइनं गीअं, हासभुत्तासिपाणि श्र। पणीअं भत्तपाणं च, अइमायं पाणभोयणं ॥२॥ गत्तभूसणमिटुं च, कामभोगा य दुज्जया । नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥३॥ छायाः-प्रालयः स्त्रीजनाकीर्णः, स्वीकथा च मनोरमा ।
संस्तवश्चैव नारीणां, तासामिन्द्रिदर्शनम् ॥ १॥ कूजितं रुदितं गीतं, हास्यभुकासितानि च।। प्रणीतं भक्तपानं च, अतिमानं पानभोजनम् ॥२॥ गानभूषणमिष्टं च, कामभोगाश्च दुर्जया ।
नरस्यात्मगवेपिणः, विषं तालपुटं यथा ॥३॥ शब्दार्थः-स्त्रीजन से युक्त मकान में रहना, मनोरंजक स्त्री कथा कहना, स्त्री से अत्यन्त घनिष्ठता रखना---एक ही आसन पर बैठना, और स्त्रियों के अंगोपांग देखना। स्त्रियों सम्बन्धी मनोरम ध्वनि सुनना, रुदन सुनना, गीत सुनना, स्त्रियों के साथ पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण करना, बल-वर्द्धक आहार या पान का सेवन करना, परिमाण से अधिक भोजन-पान करना । प्रियकारी शरीर-शुश्रूषा करना--शरीर को सजाना, यह सव कामभोग आत्म-गवेषणा करनेवाले ब्रह्मचारी पुरुष के लिए तालपुट नामक विप के समान सिद्ध होते हैं।
आष्यः-सातवें अध्याय में धर्म का निरूपण किया गया है । ब्रह्मचर्य की साधना करने पर ही धर्म की आराधना होती है । ब्रह्मचर्य धर्म-क्रिया में प्रधान है
और तप में भी ब्रह्मचर्य सर्वश्रेष्ठ तप है । अतएव विस्तारपूर्वक उसका विवेचन करने के लिए यह पृथक् अध्याय कहा गया है।