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श्रतएव वुद्धिमान् पुरुष घी और अग्नि को एक स्थान पर न रक्खे - अर्थात् स्त्री और ब्रह्मचारी पुरुष एक ही स्थान पर न रहें ।
(४) जैसे सूर्य की ओर टकटकी लगाने से नेत्रों की हानि होती है, उसी प्रकार स्त्री के अंगोपांगों की ओर स्थिर दृष्टि से देखने से ब्रह्मचर्य की हानि होती है ।
(५) जैसे मेघों की गर्जना - ध्वनि सुनने से मयूर का चित्त एकदम चंचल हो उठता है उसी प्रकार पर्दा, दीवाल आदि की ओट में रहे हुए दम्पती के कामुकतापूर्ण शब्द श्रवण करने से ब्रह्मचारी का अन्तःकरण विचलित हो उठती है । अतएव ब्रह्मचारी को इस प्रकार के शब्द-श्रवण से बचना चाहिए। इसी प्रकार रुदन, गीत और हास्य-विनोद के शब्दों को भी नहीं सुनना चाहिए ।
(६) किसी वृद्धा के यहां कुछ पथिक छाछ पीकर चले गये । उनके चले जाने के पश्चात् वृद्धा ने तक (छाछ) देखा तो उसमें साँप निकला। छह महीने के अनन्तर वे पथिक उस वृद्धा के यहां लौटे तो उन्हें जीवित देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुई, क्योंकि वह जानती थी कि सर्प के विष के प्रभाव से सब पथिक काल के ग्रास बन गये होंगे । उसने उन पथिकों से कहा- बेटा ! मैं समझती थी- तुम्हारे कभी दर्शन न होंगे, क्योंकि जो तक तुमने पिया था उसमें मरा साँप निकला था । तुम्हें जीवित देख कर अब मेरे हर्ष का पारावार नहीं है।' इतना सुनते ही सब के सब पथिक मृत्यु को प्राप्त हुए । इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि पहले भोगे हुए भोग का स्मरण भी अत्यन्त अनिष्टकारक होता है । श्रतएव ब्रह्मचारी पुरुष को पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए, इससे ब्रह्मचर्य का विनाश हो जाता है ।
(७) जैसे सन्निपात रोग से पीडित पुरुष को मिष्टान आदि खिलाने से उसके जीवन का शीघ्र अन्त हो जाता है उसी प्रकार सदा सरस और पौष्टिक आहार करने से ब्रह्मचर्य का अन्त हो जाता है । अतएव ब्रह्मचारी पुरुष को गरिष्ठ पदार्थों का सदैव उपयोग नहीं करना चाहिए ।
(८) जैसे एक सेर की हँडिया में सवा सेर खिचड़ी पकाने से हँडिया फूट. जाती है, उसी प्रकार मर्यादा से अधिक आहार करने से, प्रमाद के कारण ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है ।
(१) जैसे दीन-दरिद्र व्यक्ति के पास चिन्तामणि रत्न नहीं ठहरता, उसी प्रकार मंजन, सिंगार श्रादि के द्वारा आकर्षक रूप बनाने से ब्रह्मचर्य नहीं ठहरता । जैसे तालपुट नामक विष जीवन का अन्त कर देता है, उसी प्रकार पूर्वोक्क स्त्री कथा आदि ब्रह्मचर्यं रूपी जीवन का अन्त कर देते हैं । श्रतएव जो शक्ति-सम्पन्न बनना चाहते हैं, वीर्य - लाभ के द्वारा आध्यात्मिक शुद्धि की वांछा रखते हैं, उन्हें इन सबका त्याग करना चाहिए ।
स्नान,
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ब्रह्मचर्य की साधना का मार्ग अत्यन्त नाजुक है । इन्द्रियां चंचल होती हैं । साधक अपनी साधना में तनिक भी असावधान हुआ नहीं कि इन्द्रियां स्वच्छन्द हो