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सातवां अध्याय
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योग्य है । श्रतएव सिर्फ उपरी क्रियाएँ देखकर ही किसी व्यक्ति को किसी महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित नहीं करना चाहिए ।
भो ।
मूल :- समयाए समणो होई, बंभरेण नाय मुणी होइ, तवेणं होइ तावसो ॥ १६ ॥
छायाः-समतया श्रमणो भवति, ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः ।
ज्ञानेन च मुनिर्भवति, तपसा भवति तापसः ॥ १६ ॥
शब्दार्थः--समभाव से श्रमरण - साधु होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से मुनि होता है, तपस्या करने से तापस होता है ।
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आप्यः -- जिसके निर्मल अन्तःकरण में समता - भावना की दिव्य ज्योति जग उठती है, जो शत्रु और मित्र पर समान भाव रखता है, ' अयं निजः परोवेति' अर्थात् 'यह मेरा है, यह दूसरे का है ' अथवा ' यह मेरा आत्मिय है यह पराया है ' इस भेद भावना को भूल जाता है, वही श्रमण का अन्तःकरण समस्त संसार पर समान भाव रखता है । वह साम्य का साक्षात अवतार है । निन्दक और स्तोता उसके लिए समान हैं । सभी पर-प्राणी मात्र पर एकाचार बुद्धि रखने से वह अद्भुत शान्ति का रसास्वादन करता 1
ब्रह्म अर्थात् श्रात्मा में रमण करने वाला और इन्द्रियों के मोगोपभोगों से सर्वथा विरक्त रहने वाला ब्राह्मण कहलाता है ब्राह्मण की विशेष व्याख्या पहले की जा चुकी है।
ज्ञान से मुनि होता है । संस्कृत भाषा के अनुसार जो मननशील हो उसे मुनि कहा जाता है । श्रर्थात् जो अपना मन, श्रात्मचिन्तन में संलग्न रखता है, सन की स्वच्छंदता को रोक देता है और आत्मा - अनात्मा का भेद-विज्ञान कर लेता है, वही मुनि कहलाता है ।
जो इन्द्रियों का दमन करने के लिए, पूर्व संचित पापों को भस्म करने के लिए तथा शरीर संबंधी ममता का त्याग करने के लिए विविध प्रकार की वाह्य और आभ्यन्तर तप करता है, तपस्या के फल स्वरूप इस लोक में कीर्ति की कामना नहीं करता और परलोक में सांसारिक भोगोपभोग, ऋद्धि और ऐश्वर्य की इच्छा नहीं करता वही सच्चा तपस्वी है ।
मूल :- कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । कम्मा वसो होइ, सुद्धो हवइ कम्मुणा ||२०||
छाया:- कर्मणा ब्राह्मणो भवति, कर्मणा भवति क्षत्रियः ।
कर्मणा वैश्यो भवति, शुद्धो भवति कर्मणा ॥ २० ॥