________________
-
[ २६४ ]
धर्म-निरूपण जाप करने से ही कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता, सिर्फ अरण्य-वास से ही कोई मुनि-पद प्राप्त नहीं कर सकता और कुश (दूब ) के वस्त्र धारण करने से ही कोई धुरुष तपस्वी की पदवी का अधिकारी नहीं हो सकता।
तात्पर्य यह है कि यह सब बाह्य क्रियाएँ हैं। उन्हीं से आत्मविकासजन्य उच्च पद प्राप्त नहीं होता।
मस्तक मुंडाने से यदि मुनि पद प्राप्त होता हो तो सिर में फोड़ा-फुली होने पर सिर सफाचट करा लेने वाले सभी लोग सुनि कहलाते । शिक्षा देने पर तोता भी ओंकार का रटन करने लगता है। यदि ओंकार के रटन से ही ब्राह्मणत्व की प्राप्ति हो जाय उस तोते को भी ब्राह्मण मानना पड़ेगा। इसी प्रकार वन-वास मुनित्व का कारण नहीं है। वन-वास ही मुनि का लक्षण मान लिया जाय तो मुनि पद की बड़ी दुर्दशा होगी। समस्त जंगली जानवर और गौड़, भील, पुलिंद, शवर, व्याध, निषाद, दस्यु, लुब्धक, किरात आदि जंगली मनुष्य मुनि कहलाएँगे। और कुश-चीर के परिधान से यदि तपस्वी मान लिया जाय तो कुश का भी चीर ( वस्त्र) न पहनने वाले पशुओं को तो महातपस्वी मानना पड़ेगा । इस प्रकार बाह्य श्राचार को प्रश्रय देने से अहिंसा सत्य, ब्रह्मचर्य, समता भाव, आदि श्रान्तरिक गुणों की महत्ता का विनाश होता है और ढोंग की महत्ता बढ़ जाती है ।
यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि बाह्य वेष का. कोई मूल्य नहीं है तो जैन शास्त्रों तथा अन्यान्य सभी शास्त्रों में अपने-अपने सम्प्रदायों का वेष नियत क्यों किया गया है ? इस का समाधान यह है कि यहां बाह्य वेष का अथवा बाह्य प्राचार का निषेध नहीं किया गया है । यहां पर तो आन्तरिक गुणों के अभाव में एकान्त वेष अथवा बाह्य क्रिया-कांड के द्वारा महत्ता प्राप्त होने का निषेध किया गया है। आन्तरिक आचार से जो बाह्य प्राचार प्रति फलित होता है उसका विरोध नहीं किया गया है। यही नहीं, उस बाह्य प्राचार का विधान भी शास्त्रों में पाया जाता हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में वेष का प्रयोजन लोक-प्रत्याबन बतलाया है । अंर्थात वेष से लोग सहज ही समझ लेते हैं कि यह साधु, इस सम्प्रदाय का है। .... हृदय में जब कोई सद्गुण जागृत होता है तब बाहरी व्यवहार में भी उसका प्रभाव रहता है। उदाहरणार्थ-अन्तःकरण अहिंसा की भावना से जब श्रोत-प्रोत हो जाता है तब अहिंसक के अनेक बाह्य व्यवहारों में अन्तर पड़ जाता है । उल . समय वह चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलता है, प्रतिलेखन करता है श्रादि। इस प्रकार का बाह्य प्राचार-जो अन्तःकरण की विशुद्धि से स्वतः अदभूत होता है,
आदर की वस्तु है। .जैसे श्रात्मा के सद्भाव में ही शरीर उपयोगी होता है, विना प्रात्मा का शरीर निष्प्रयोजन है, उसी प्रकार आन्तरिक प्राचार के सद्भाव में ही वाह्य प्राचार की उपयोगिता है। आन्तरिक वृत्ति न होने पर बाह्य क्रियाकांड निरर्थक है । यही नहीं वह दूसरों के लिए भ्रामक होने के कारण भयंकर भी है और इस लिए वह गर्दा के