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सातवां अध्याय
[ २८१ ] ___ यद्यपि सख्यक चारित्र का अनुष्ठान करने से स्वर्गीय सुखों की प्राप्ति होती है, पर सस्यक चारिन के अनुष्ठान का उद्देश्य यह सुख पाना नहीं होना चाहिए। चारित्र का अनुष्ठान तो अक्षय, अनन्त और आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिए किया जाता है। जैसे कृषक धान्य-प्राप्ति के लिए कृषिकर्म करता है, फिर भी उसे आनुषंगिक फल के रूप में भूसा प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार स्वर्ग के सुख चारित्र-पालन का
आनुषंगिक फल है । ऐसा विचार कर अन्य पुरुषों को श्रात्मकल्याण के निमित्त ही बारित्र का प्रतिपालन करना चाहिए, सांसारिक भोगोपयोग की प्राप्ति के लिए नहीं। देवयोनि के सुख संसार में अनुपम होने पर भी लमय की सीमा से सीमित हैं, परिमाण की दृष्टि से परिसित हैं और नवीन कर्म-बन्धन के कारणभूत हैं । उच्च श्रेणी के देवों की अपेक्षा निम्न श्रेणी के देवों के भोगोपभोग ल्यून होने से वे संताप के भी सारण होते हैं। मल:-ताणि ठाणाणि गच्छति, सिक्खिता संजमं तव।।
भिक्खाए वा गिहत्थे वा, जे संति परिनिव्वुडा ॥॥ छाया:-तानि स्थानानि गच्छन्ति, शिक्षित्वा संयमं तपः। '
भितुका वा गृहस्था वा, ये संति परिनिवृत्ताः ॥६॥ शब्दार्थः--जो भिक्षुक अथवा गृहस्थ क्रोध आदि से रहित हैं के संयम और तप का अभ्यास करके दिव्य स्थान प्राप्त करते हैं।
भाष्यः-यहां पर शास्त्रकार ले संयम और तप का पुण्य रूप फल प्रदर्शित किया है । इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो परिनिवृत्त हो जाते हैं अर्थात् पूर्ण रूप से कषाय श्रादि का त्याग कर अपनी आत्मा को विशुद्ध बना लेते हैं वे ही संयम और तप की यथावत् अाराधना कर सकते हैं। और जो संयम तथा तप की आराधना करते हैं उन्हें दिव्य स्थान प्राप्त होता है-स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
कहीं-कहीं 'संति परिनिव्वुडा' एक ही पद मान कर व्याख्या की गई है। इस व्याख्या के अनुसार 'शान्तिपरिनिवृत्ताः' ऐसा संस्कृत रूप सम्पन्न होता है। उसका अर्थ है-'शान्ति के द्वारा पूर्ण रूप से संताप रहित है। ऐसी व्याख्या करने में भी कोई बाधा नहीं है। मुल:-बहिया उड्ढमादाय, नावकंखे कयाइ वि।
पुवकम्मखयट्ठाए, इमं देहं समुद्धरे ॥ १०॥ ... छायाः-वाह्यमूर्ध्वमादाय, नावकांक्षेत् कदापि च । :
__पूर्वकर्मक्षयार्थ, इमं देहे समुद्धरेत् ॥ १० ॥ शब्दार्थः--संसार से बाहर ऊर्ध्व अर्थात् मोक्ष की अभिलाषा रख कर, सांसारिक विषय भोगों की आकांक्षा कदापि न करे। और पूर्व-संचित कर्मों का क्षय करने के लिए