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सातवां अध्याय
[ २७६ ] .. सामायिक और पोषध व्रत का निरूपण श्रावक के वारह व्रतों के विवेचन में किया जा चुका है । जिज्ञासुओं को वहीं देखना चाहिए । पुनरुक्ति के भय से यहां विस्तार नहीं किया जाता। . .
सामायिक और पोषध व्रत को काय से अनुष्ठान करने का विधान करने से सन और वचन से करने का विधान भी उसी में प्रान्तर्गत समझना चाहिए।
मूलः-एवं सिमखासमावण्णो, गिहिवासे वि सुव्वए । . मुच्चई छविपव्वाश्रो, गच्छे जक्खस लोगयं ॥७॥ छाया:-एवं शिक्षासमापन्न, गृहिवासेऽपि सुव्रतः ।
मुच्यते छविःपर्वणो, गच्छेत् यत्तस लोकताम् ।। ७ ॥ शब्दार्थः--इस प्रकार शिक्षा से युक्त गृहस्थ, गृहस्थी में रहता हुआ भी सुव्रती होता है । वह औदारीक शरीर का त्याग कर के यक्ष देवों का लोक-स्वर्ग प्राप्त करता है।
__भाष्यः-गृहस्थम का पहले जो विवेचन किया गया है, उसका फल प्रदार्शत करते हुए शास्त्रकार ने यह गाथा कही है ।
शिक्षा का अर्थ यहां चारित्र है । पूर्वोक्त द्वादश व्रत रूप चारित्र से सम्पन्न श्रावक, गृहस्थी में निवास करता हुआ अर्थात् गृहस्थोचित कर्तव्यों का पालन करता हुआ भी औदारिक शरीर से मुक्त हो जाता है और स्वर्ग को प्राप्त होता है।
पहले बतलाया गया है कि मनुष्य और तिर्यञ्च जीवों का अस्थि, मांस, आदि सप्त धातु मय शरीर औदारिक शरीर कहलाता है और देवों का शरीर सप्त धातु वर्जित वैक्रिय शरीर कहलाता है। यक्ष, व्यन्तर देवों की एक विशेष जाति है किन्तु सम्यक्त्वधारी श्रावक काल करके व्यन्तर देव नहीं होता। अतएव यक्ष शब्द से यहां सामान्य देव योनि का अर्थ समझना चाहिए । विशेष का विचार करने पर वह वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है।
यह विधान सम्यक्त्व और व्रत से विभूषित श्रावक के लिए समझना चाहिए। सम्यक्त्वहीन तपस्या आदि करने वाले मनुष्य भी हो सकते हैं, जैसा कि तृतीय अध्ययन की दूसरी गाथा में बताया गया है । अतः पूर्वोक्त कथन में कोई विरोध नहीं है। मूल:-दीहाउया इढिमंता, समिद्धा काम रूविणो : .
अहुणोववन्नसंकासा, भुजो अच्चिमालिप्पभा ॥८॥ छायाः-दीर्घायुषः ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः ।
अधुनोत्पन्नसंकाशाः, भूयोऽर्चमालि प्रभाः॥८॥ 'शब्दार्थः-जो गृहस्थ, श्रावक धर्म का पालन करके देव योनि में उत्पन्न होते हैं, वे वहां दीर्घ आयु वाले, ऋद्धिमान, समृद्धिशाली, इच्छानुसार रूप बनानेवाले, तत्काल