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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियता छचन
। सातवां अध्याय ॥
धर्म-निरूपण
श्रीभगवान् उवाचमूलः-महव्वए पंच अणुव्वए य, तहेव पंचासवसंवरे य । विरतिं इह सामणियंमि पन्ने, लवावसकी समणे तिमि ॥१॥ छाया:-महाव्रतानि पञ्च अणुव्रतानि च, तथैव पञ्चास्रवान् संवरं च ।
विरतिमिह श्रामण्ये प्राज्ञः, लवापशाङ्कीः श्रमण इति ब्रवीमि ॥1॥ शब्दार्थः-पांच महाव्रतों का पालन करना, पांच प्रकार के प्रास्रव से संवृत होना, इसे साधु-विरति कहते हैं । जो बुद्धिशाली और कर्मों का नाश करने में समर्थ होता है वह श्रमण है। पांच अणुव्रतों को देशविरति कहा गया है।
भाष्यः-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र मुक्ति का मार्ग है, यह निरूपण किया जा चुका है। इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं। इनमें से ज्ञान और दर्शन का पछले दो अध्ययनों में विवेचन करके अब क्रमप्राप्त चारित्र का वर्णन किया जाता है । रत्नत्रय में चारित्र का अन्त में वर्णन इसलिए किया जाता है कि चारित्र सम्यरदर्शन और सस्यग्ज्ञान का फल है। दोनों की प्राप्ति के पश्चात् ही चारित्र की प्राप्ति होती है-पहले नहीं।
जिनप्रणीत धर्म सार्व है-सर्व कल्याणकारी है । अतएव उसमें चारित्र का जो प्ररूपण किया गया है वह श्रमणों और श्रावको-दोनों को लक्ष्य करके किया गया है। इस कारण अधिकारी के भेद से चारित्र के भी दो भेद होते हैं-(१) सकलचारित्र या सर्वविरति और (२) विकलचारित्र या देशविरति । जिनागम-प्रतिपादित अहिंसा आदि व्रतों का सर्वाश से पालन करना सर्वविरति है और सांसारिक व्यापारों में लीन होने के कारण सर्वांश में अहिंसा आदि व्रतोंका पालन करने में असमर्थ गृहस्थों द्वारा कुछ अंशों में उक्त व्रतों का पालन करना देशविरति है। साधु और श्रावक के बत यद्यपि समान हैं, परन्तु उनकी पालन करने की मर्यादा विभिन्न होती है। जैसे साधु त्रस, स्थावर, सापराधी, निरपराधी आदि समस्त प्रकार के जीवों की हिंसा का तीन करण और तीन योग से त्याग करते हैं और गृहस्थ केवल उस जीवों की, उसमें भी निरपराधी जीव की संकल्पी हिंसा का परित्याग करता है । यही विषय आगे विशद किया जाता है। पाँच महावत इस प्रकार हैं: