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छठा अध्याय
[ २५१ ] . अर्थात् जो हेतुवाद के विषय में हेतु से और भागमवाद के विषय में आगम से प्रवृत्त होता है वह स्वसमय का प्ररूपक (श्राराधक ) है और जो हेतुवाद के विषय में पागम से तथा आगम के विषय में हेतु से प्रवृत्त होता है वह सिद्धान्त का जिराधक है।
इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष न तो एकान्त श्रद्धा पर अवलम्बित रहता है और न एकान्त तर्क पर आश्रित होता है। प्ररूपणीय विषय की योग्यता का विचार करके यथायोग्य विवेक के साथ निश्चय करता है । जो विषय केवल श्रद्धा का होता है उसमें तर्क का हस्तक्षेप नहीं होने देता. क्योंकि ऐसा करने से यथार्थ निर्णय होना संभव नहीं है तथा तर्क द्वारा निर्णय होने योग्य विषय में श्रागम का ही श्राग्रह नहीं रखता है। ऐसा करने से उसकी श्रद्धा भी अविचलित रहती है और विचारशक्ति की भी वृद्धि होती है, पर सम्यग्दृष्टि इस बात का ध्यान अवश्य रखता है कि तर्क का निर्णय आगम से विरुद्ध नहीं होना चाहिए। जो तर्क आगम के विरुद्ध वस्तु तत्त्व उपस्थित करता है, समझना चाहिए कि उसमें कहीं दोष अवश्य है । विशुद्ध तर्क श्रागम से समन्वित होता है, आगम का साधक होता है, नागम का प्रतियही नहीं होता। मूल:-जातिं च बुट्टिं च इहज पास,
भूतेहिं जाणे पडिलेह सायें। तम्हाऽतिविजो परमंति णचा,
सम्मत्चदंसी ए करेइ पावं ॥१२॥ झाया:-जाति च वृद्धिं च इह दृष्ट्वा, भूतात्वा प्रतिलेय सातम् । . .. तस्मादतिविज्ञः परममिति ज्ञात्वा, सम्यक्तदर्शी न करोति पापम् ॥१२॥ . शब्दार्थः-इस संसार में जन्म और वृद्धावस्था को देखो और यह देखो कि सब प्राणियों को सात्रा-सुख प्रिय है । ऐसा विचार कर, मोक्ष को जान्द कर तत्त्वज्ञ सम्यग्दृष्टि पाप नहीं करता है।
. भाष्यः-संसार में जन्म और वृद्धावस्था प्रत्येक प्राणी को पीडित कर रही है। जगत् के समस्त जीव साता अर्थात् सुख चाहते हैं। सब जीव सुख के लिए ही प्रवृत्ति कर रहे हैं। क्या मनुष्य, क्या पशु-पक्षी, और क्या कीड़े-मकोड़े-सभी की एक मात्र इच्छा सुख पाने की है। सभी दुःख से बचना चाहते हैं । जिस तिर्यञ्च योनि में कोई मनुष्य जाना नहीं चाहता, उसमें भी गये हुए जीव मृत्यु के भय से भीत होकर मरना नहीं चाहते । जैसे हमें सुख प्रिय है, उसी प्रकार सब अन्य प्राणियों को श्री सुख प्रिय है । जैसे हमें दुःन अप्रिय है वैसे ही दूसरों को भी वह अप्रिय है। ऐसा विचार करके और मोक्ष का विचार करके तत्त्व को यथार्थ रूप से जाननेवाला सम्यग्दर्शनवान् व्यक्ति पाप नहीं करता है। ....