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छठा अध्याय
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सन्मुख रख कर धर्मानुष्ठान करता है उसे सांसारिक सुख तो अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं, उनकी कामना करने से आध्यात्मिक फल की प्राप्ति रुक जाती है । सांसा रिक लाभ के लिए की जाने वाली क्रिया का दुरुपयोग इसी प्रकार है जैसे कौश्रा उड़ाने के लिए समुद्र में चिन्तामणि फेंक देना । निदान से धर्म क्रिया संसार के असार विषय-भोगों के लिए बिक जाती है । इसी प्रकार निदान को शूल्य कहा गया है । शल्य - रहित जीव ही व्रती होता है । कहा भी है-' निःशल्यो व्रती । ' अतएव सम्यग्दर्शन में श्रसस्त होकर, निदानशल्य का त्यागकर, उत्कृष्ट परिणाम बनाये रखना ही सम्यक्त्व की सरलता पूर्वक पाने का मार्ग है ।
मूल:- जिणवयणे अणुरता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । मला असंकि लिट्टा, ते होंति परिचसंसारी ॥ ११ ॥
छाया:- जिनवचनेऽनुरक्ता, जिनवचने ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंक्लिष्टाः, ते भवन्ति परीत संसारिणः ॥ ११ ॥
शब्दार्थः -- जो जीव जिन भगवान् के वचन में श्रद्धावान हैं और जो अन्तःकरण से जिन-वचन के अनुसार अनुष्ठान करते हैं, वे मिध्यात्व रूपी मल से रहित तथा संक्लेश से रहित होकर परीत संसारी बन जाते हैं ।.
भाग्य - सम्यदर्शन के फल का निरूपण करते हुए सूत्रकार ने यह बताया है कि जो भाग्यवान् प्राणी जिन भगवान् के वचनों में आसक्त होते हैं अर्थात् वीतरागोक्त श्रागम पर सुद्दढ़ श्रद्धा रखते हैं, किसी भी अवस्था में, किसी भी संकट के आ पढ़ने पर भी वीतराग - प्ररूपित आगम से विपरीत श्रद्धान नहीं करते हैं, साथ ही जिनोक्ल आगम के अनुसार ही चलते हैं, वे . मिध्यात्व आदि रूप कर्म - मल से रहित हो जाते हैं। उन्हें कर्म-बंधजनक संक्लेशं भी नहीं होता है और वे अनन्त काल तक के अव-भ्रमण को घटा कर सीमित कर लेते हैं । अर्थात् श्रई पुगल परावर्त्तन काल न्तक, अधिक से अधिक वे संसार में रहते हैं । तदनन्तर उन्हें मुक्ति प्राप्त हो लाती है।
संसारी प्राणी चाहे जितना और चाहे जितने विषयों का गंभीर ज्ञान प्राप्त कर लेवे किन्तु उसका ज्ञान अत्यन्त क्षुद्र ही रहता है । जगत् में अनन्त सूक्ष्म और सूक्ष्म तर भाव ऐसे हैं जिनका ज्ञान छुशस्थ जीवों को कदापि नहीं हो सकता । अनन्त पदार्थों को जाने दिया जाय, और केवल एक ही पदार्थ को लिया जाय तो भी यही कहना होगा कि अनन्त धर्मात्पक एक पदार्थ को, उसकी चैकालिक अनन्तानन्त पर्यायों सहित जानना छद्मस्थ के लिए संभव नहीं है । एक पदार्थ में अनन्त धर्म और एक-एक धर्म की अनन्त पर्यायें भला सर्व जीव कैसे जान सकता है ? इस प्रकार एक ही पदार्थ का पूर्ण ज्ञान न हो तब सम्पूर्ण पदार्थों के वास्तविक स्वरूप को जानते का दावा कौन कर सकता है ? इसीलिए आगम में कहा है