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सम्यक्त्व-निरूपण 'जे एगं जाण्इ से सव्वं जागइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाण । अर्थात् जो एक पदार्थ को उसकी समस्त सदभारी और क्रमभावी पर्यायों सहित जानता है वही समस्त पदार्थों को जानता है और जो समस्त पदार्थों को परिपूर्ण रूपेण जानता है वही एक पदार्थ को परिपूर्ण रूप से जानता है। तात्पर्य यह है कि एक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी अनन्तज्ञान की आवश्यक्ता है और जब अनंत ज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब सभी पदार्थ स्पष्ट प्रतिभासित होने लगते हैं। ..
___ जब संसारी जीव ज्ञान के विषय में इतना दरिद्र है तो उसे किसी ज्ञानी का शरण लेना चाहिए । अंधा यदि सुझते की सहायता के बिना ही यात्रा करेगा तो गर्त में गिरकर असफल होगा। इसी प्रकार प्रात्मकल्याण के दुरुह पथ पर अग्रसर होते समय जो ज्ञानी जनों के बचन को पथप्रदर्शक न बनाएंगा वह अपनी यात्रा में सफल नहीं हो सकता । ज्ञानी महापुरुष के वचनों का आश्रय लेकर-उन्हीं के सहारे प्रगति करने वाला पुरुष ही अपने लक्ष्य पर पहुंच सकता है।
अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ज्ञानीके वचनों पर पूर्ण श्रद्धान रख कर चलने से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है, यह तो ठीक है, किन्तु जानी किले माना जाय? संसार में अनेक मत-मतान्तर है और सभी मतावलम्बी अपने इष्ट प्राराध्य पुरुष को जानी मानते हैं । फिर भी उन सव मतों में पर्याप्त अन्तर है । एक मत श्रात्मकल्याण की जो दिशा सूचित करता है, दुसरा मत उससे विपरीत दिशा सुझाता है । ऐसी अवस्था में मुमुनु को किसका ग्रहण और किसका परिहार करना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने यहां उदारता पूर्वक दिया है । जिस महा पुरुष ने राग-द्वेष श्रादि समस्त आत्मिक विकारों पर अंतिम विजय प्राप्त करली है, उसे जिन कहते हैं । जिन अवस्था तभी प्राप्त होती है जब सर्वज्ञ दशा प्राप्त हो जाती है । इस कारण जो सर्वज हैं और जिन अर्थात वीतराग हैं, उनका वचन अन्यथा रूप नहीं हो सकता । अतएवं मुमुनु जीवों को 'जिन' के वचनों पर ही. श्रद्धान करना चाहिए उन्हीं के वचनों को अपनी मुक्ति-यात्रा का प्रकाश-स्तम्भं . बनाना चाहिए। जिन कदापि अन्यथावादी नहीं हो सकते, इस प्रकार की अविचल.. प्रतिपत्ति के साथ प्रवृत्ति करने वाला पुरुष ही मुक्ति प्राप्त कर सकता हैं। जो जिनबचन पर श्रद्धान नहीं करता अर्थात जो संशयात्मक है अथवा रागी-द्वेषी पुरुषों के. वचन प्रमाण मानता है, वह या तो श्रेयोमार्ग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता या विपरीत प्रवृत्ति करके अश्रेयस. का भागी होता है। सम्यग्दृष्टि पुरुष को श्रद्धा योग्य विषय में . श्रद्धा करनी चाहिए और तर्क द्वारा निश्चय करने योग्य पदार्थ का तर्क से निर्णय करना चाहिए। तर्क के विषय में आगम और आगम के विषय में तर्क का प्रयोग करना उचित नहीं है। आचार्य सिद्धसेन कहते हैं
जो हेउवायपक्खम्मि हेडो, श्रागमें य आगम श्रो। सो ससमयपरणवो, सिद्धंतविराह ओ अन्ना ॥
-सन्मति तर्क, गाथा ४५ . ..