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धर्म-निरूपण ...: (४) दुष्पक्काहार-जो वस्तु बहुत पक कर सड़ गई हो, गल गई हो, जिसके वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदल गये हों, ऐसी वस्तु का भक्षण करना।
(५) तुच्छाहार-जिन खाद्य पदार्थों में खाने योग्य अंश कम और त्याज्य अंश अधिक हो, जैसे सीताफल, बेर श्रादि तुच्छ पदार्थों का भक्षण करना ।
कम की अपेक्षा इस व्रत के पन्द्रह अतिचार होते हैं । उनका उल्लेख आगे किया जायगा.।
पाठवें व्रत अथवा तीसरे गुण व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है. . (१) कन्दर्प-कामवासना जागृत करने वाले वाक्यों का प्रयोग करना तथा स्त्रियों के समक्ष पुरुषों की काम-चेष्टाओं का सरल वर्णन करना, और पुरुषों के समक्ष स्त्रियों के हाव-भाव, विलास आदि का कथन करना । .
(२) कौत्कुच्य-काम संबंधी कुचेष्टा करना । जैसे-भौंह. मटकाना, श्रांख दवाकर इशारा करना। अपनी काम-वासना को व्यक्त करने तथा..दूसरे की कामवासना जागृत करने के लिए शावक को इस प्रकार की भांडों सरीखी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए।
(३) मौखर्य-विना सोचे-समझे बोलना, असभ्य वचनों का प्रयोग करना, लाधारण वार्तालाप में भी गालियों का प्रयोग करना, धृष्टतापूर्वक बोलना, आदि।
... (४) संयुक्ताधिकरणं-अधिक्रियते दुर्गतावात्मा अनेन, इति अधिकरणम्.' अंर्थात् जिसके द्वारा श्रात्मा नरक आदि दुर्गति का अधिकारी बनाया जाय उसे अधिकरण कहते हैं । हिंसा के उपकरण शस्त्र, मूसल, हल आदि अधिकरण है। एक अधिकरण का दूसरे अधिकरण के साथ संबंध जोड़ना संयुक्ताधिकरण नामक अतिचार हैं। जैसे-अोखली हो तो नया भूसल बनवाना, फाल हो तो हल बनवाना, चक्की का एक पाट हो तो दूसरा पाट'बनवाना आदि ।
(५) उपभोग परिभोगतिरेक-उपभोग, परिभोग के योग्य वस्तुओं में अधिक आसक्त होना । जैसे-सदा नाटक, सिनेमा देखने के लिए लालायित रहना, इत्र तेल फुलेल आदि में लोलुप रहना, इन भोगोपभोग के लाधनों के लिए अधिक प्रारंभ करना, विकारजनक राग-रागिनी सुनने में अतीव लालसा रखना, सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होना। ऐसा करने से निकाचित कर्मों का बंध होता है । श्रावक को भोगोंपभोग में अत्यन्त आसक्त न होकर उदासीन वृत्ति रखनी चाहिए। ..
चार शिक्षा व्रत पूर्वोक्त पांच अणुव्रतों और तीन गुणवतों का यथायोन्य पालन करने की जिस्म स्ले शिक्षा मिलती है, उसे शिक्षाव्रत कहते हैं। शिक्षावत के चार भेद हैं-(१) सामा. यिक व्रत, (२) देशावकाशिक व्रत, (३) पौषधोपवास व्रत और (४) अतिथिसंविभाग व्रत । इन चारों का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है।