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धर्म-निरूपण (२६) एक वस्तु के विभिन्न रूप पलटने पर स्वाद में भेद हो जाता है । स्वाद भेद से यहां द्रव्य भेद समझना चाहिए । जैसे गेहूं की रोटी, वाटी, पूड़ी आदि विभिन्न द्रव्य हैं । इस प्रकार द्रव्यों की मर्यादा करना।
संसार में अनगिनती पदार्थ मनुष्य के उपयोग में आते हैं । उन सब पदार्थों का यथायोग्य इन छब्बीस बोलों में समावेश करना चाहिए और सभी पदार्थों की मर्यादा करना चाहिए । इस प्रकार मर्यादा करने से इच्छाओं पर विजय प्राप्त होती है, राग भाव की न्यूनता होती है और राग भाव ज्यों-ज्यों न्यून होता है त्यों-त्यों प्रास्रव भी न्यून होता जाता है।
भोज्य पदार्थों में अतिशय पाप जनक होने के कारण कोई-कोई पदार्थ श्रावक को सर्वथा अभक्ष्य हैं। उन अभक्ष्य पदार्थों का श्रावक को त्याग करना चाहिए। . :
मद्य, मांस, पांच उदाम्बर-गुलर, फल, वड़ का फल, पीपल का फल, पाकर का फल, कलुबर का फल-अज्ञात, फल, रात्रि भोजन, लीलन-फूलन वाला भोजन, लड़ा-घुना अन्न, यह सब श्रावक को भक्षण करने योग्य नहीं हैं।
इनके अतिरिक्त जिन फलों में कीड़े पड़ गये हों वह फल भी भक्षणीय नहीं हैं। इस चलित आचार, सुरव्वा, पालव आदि पदार्थ भी त्याज्य है । तात्पर्य यह है कि श्रावक सात्विक भोजन ही करते हैं और जिन भोज्य पदार्थों के भक्षण से त्रस जीवों की अथवा स्थावर जीवों की निरर्थक हिंसा होती हो उनका त्याग करना चाहिए । भोजन के विषय में भोज्य पदार्थों की निर्दोषता का, स्वच्छता का और सात्विकता का ध्यान सदैव रखना चाहिए । भोजन का मानसिक विचारों पर भी प्रभाव पड़ता है, अतएव राजस और तामस पदार्थों का भक्षण नहीं करना चाहिए । भोजन संबंधी अन्य बातें, विवेकशील पुरुषों को विना विचार कर व्यवहार नहीं करना चाहिए । जैसे विदेशी शमकर न खाना, मांस-मदिरा मिश्रीत विदेशी औषधियों का उपयोग न करना आदि-आदि।
(३) अनर्थ दंड विरमणव्रत-निरर्थक पाप का त्याग करना अनर्थ दंड विरमणव्रत है। अनर्थ दंड के मुख्य रूप से चार भेद हैं-(१) अपध्यानाचरित (२) प्रमा-- दाचरित (३) हिंसाप्रदान और (४) पापकर्मोपदेश।
(१) अपध्यान-राग-द्वेषमय विचार करना, दुसरे का बुरा विचारना। " (२, प्रमादाचरित-पाठ मद, इन्द्रियों के विषय, कषाय, निन्दा और विकथा करना । ... . (३) हिंसाप्रदान-तलवार, बन्दूक, अग्नि प्रादि हिंसा के साधन दूसरों को देना। .
. (४) पापकर्मोपदेश-पापजनक कार्यों के करने का उपदेश देना। ..... श्रावकों की दृष्टि पाप से अधिक से अधिक बचने की होनी चाहिए । जिन सार्थक पापों का त्याग करना शक्य हो उन्हें व्रत मर्यादा के अनुकूल अवश्य त्यागे,
देना।
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