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सातवां अध्याय
[ २५७ ] चाहिए। ऊपर से जिवानी डालने पर हिंसा होती है अतः जिस पात्र से जिवानी डालनी हो उसमें श्रावक दो रस्सियां लगा देते और पानी के निकट पात्र पहुंच जाने पर नीचे वाली रस्सी खेंच कर यतनापूर्वक जिवानी पानी में मिला देते हैं।
सारांश यह है कि श्रावक का श्राचार इस प्रकार नियमित हो जाता है कि बह स्थावर जीवों की निष्प्रयोजन हिंसा से बचने का सदा प्रयत्न करता रहता है और प्रत्येक कार्य में यतना तथा विवेक का ध्यान रखता है। प्रथम अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचार इस प्रकार है
(१) बन्ध-क्रोध के वश होकर किसी जीव को बांधना । बन्ध दो प्रकार का है-द्विपदबन्ध और चतुष्पदबन्ध । इन दोनों बन्धों के भी दो-दो भेद हैं-सार्थकबंध और निरर्थकबंध । निरर्थकबन्ध श्रावक के लिए त्याज्य है । सार्थकबन्ध के दो भेद हैं-सापेक्षबन्ध और निरपेक्षबन्ध । ढीली गांठ आदि से बांधना सापेक्षबन्ध है और गाढ़े बन्धन से बांधना निरपेक्षबन्ध है। श्रावक को यथायोग्य रूप से पशु आदिको को इस प्रकार न बांधना चाहिए जिससे उन्हें कष्ट हो और अग्नि आदि का उत्पात होने पर सहज ही वह बन्धन खोला जा सके ।
- (२) वध-कषाय के आवेश से लकड़ी, चाबुक आदि से ताड़ना करना वध नामक अतिचार है । वध के भी सापेक्ष और निरपेक्ष के भेद से दो भेद हैं और श्रावक को निरपेक्ष वध का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।
(३) छविच्छेद-शरीर को या चमड़ी श्रादि अवयों को छेदन करना छविच्छेद अतिचार है। जो छविच्छेद कषाय के आवेश से किया जाता है वह श्रावक धर्म को दूषित करता है।
(४) अतिभारारोपण-घोड़ा, बैल, ऊँट, मनुष्य आदि के सिर पर, कंधों पर या पीठ पर अधिक बोझ लाद देना, जो उन्हें असह्य हो, अतिभारारोपण अतिचार कहलाता है। क्रोध या लोभ के वश होकर अनेक मनुष्य बैलगाड़ी, तांगा आदि पर असा बोझ लाद देते हैं, या अधिक मनुष्य बैठ जाते हैं, जिससे उसमें जुतने वाले बैल आदि मूक पशुओं को बहुत कष्ट होता है । अहिंसाणुव्रती दयालु श्रावक को ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए।
(५) अन्नपाननिरोध-क्रोध के वश होकर अपने आश्रित मनुष्य और पशु. श्रादि को भोजन-पानी न देना अन्नपाननिरोध अतिचार है । श्रावकं को ऐसा निर्दय ब्यवहार नहीं करना चाहिए, क्योंकि तीव्र भूख लगने से कभी किसी प्राणी की मृत्यु हो जाती है। अगर मृत्यु न हो तो भी उसे अत्यन्त कष्ट होता है। अतएव जब भोजन का समय हो तो अपने आश्रित समस्त मनुष्यों और पशुओं की सार-संभाल किए बिना नहीं रहना चाहिए और जो भूखे-प्यासे हों उन्हें यथोचित ओजव-पान दिए बिना श्रावक वर्ग भोजन नहीं करते । बीमारी की दशा में भोजन न देना अन्नपान निरोध अतिचार वहीं है। यह बताने के लिए ' क्रोध के वंश होकर' ऐसा कहा गया है।