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धर्म-निरूपण करते हैं, चक्की और चूल्हे को भली भांति देख लेते हैं कि कोई उस जीव उसका श्राश्रय लेकर स्थित न हों। मिर्च और धनिया आदि मसालों में कुछ दिन के बाद जीवों की उत्पत्ति हो जाती है अतएव श्रावक उनका उपयोग भली भांति देख कर ही करता है । इसी प्रकार पिसाहुश्रा आटा, चेसन आदि की मर्यादा दस दिन की हैं। इस से अधिक समय तक रखा हुअा अाटा वेसन वगैरह काम में नहीं लिया जाना चाहिए । इस प्रकार दाल, भात, रोटी, पूढ़ी, मिठाई, दूध, दही, आदि-आदि समस्त भोज्य पदार्थ विकृत होगये हों, उनका स्वाद बिगड़ गया हो, वे तड़बड़ा गये हों, उन में फूलण व लाला उत्पन्न होगई हो तो उन्हें नहीं खाना चाहिर । क्यों कि फिर उनमें जीवों की उत्पत्ति हो जाती है।
रसोई घर में, जल गृह, भोजन करने की जगह, ऊखली, आटा आदि छानने की जगह, चक्की के ऊपर, इत्यादि स्थानों पर ऊपर चंदोवा न होने से छोटा-बड़ा जीव-जन्तु गिरकर भोज्य सामग्री में मिल जाता है। इसले जीव हिंसा होती है और अभक्ष्य-भक्षण का भी दोप लगता है। अतएव ऐसे स्थानों पर विवेकी श्रावक चंदोका बांधता है। साथ ही चूल्हा, चाकी श्रादि चीजों को, जब उनका उपयोग न करना हो तो खूला नहीं रखना चाहिए । खुला छोड़ देने से सूक्ष्म जीव उनमें घुल जाते हैं और उपयोग करते समय उनकी हिंसा हो जाती है । प्राचार या इस प्रकार की अन्य वस्तुओं के पात्र खुले रखनेसे भी हिंसा आदि अनेक अनर्थ होते हैं, अतएव ऐसे पात्रों को खुला नहीं रखना चाहिए।
विचारशील श्रावक जल के उपयोग के सम्बन्ध में भी विवेक से काम लेता है। जल के एक बूंद में केवली भंगवान् ने असंख्यात जीवों की विद्यमानता बताई है। माइक्रोफोन नामक प्राधुनिक यंत्र से भी हजारों चलते-फिरते जीव एक वृंद में देखे जाते हैं। ऐसी अवस्था में एक विन्दु जल का व्यर्थ व्यय करने से असंख्यात जीवों की निरर्थक हिंसा होती है। अहिंसाणुव्रती श्रावक इस हिंसा से बचने का सदैव प्रयत्न करता है। जितना जल स्नान-पान आदि के लिए अनिवार्य है उतना ही व्यय करता है. उससे अधिक नहीं। और वह भी बिना छने हुए जल का कदापि उपयोग नहीं करता । ग्रन्थों में जल छानने के सम्बन्ध में कहा है कि-रंगे हुए और पहने हर वस्त्र से जल नहीं छानना चाहिए । श्रावक दो पड़ती खादी के वस्त्र से जिस
की किरणें साफ न नज़र आती हो-जल छानते है । छानते समय ऐसी सावधानी रखनी है कि एक भी द जल ज़मीन पर न गिरने देते। छानने पर छन्ने में जो कडा-कचरा या चिंउटी आदि जन्तु इकठ्ठा हो जाते हैं, उन्हें हाथ से नहीं खाते किन्तु यतनापूर्वक, धीरे से, दुसरे पात्र में जोधा कर छना हुआ जल दूसरी ओर से डाल देने के कारण वह कचरा आदि उस दूसरे पात्र में श्रा जाता है। उस पानी को 'जिवानी' कहते हैं। जिवानी इधर-उधर भूमि पर नहीं डालना चाहिए और न दूसरे जलाशय में ही डालना चाहिए । जिस जलाशय का जल हो उसी जलाशय में जिवानी डाल कर श्रावक जीव-रक्षा करते हैं । जिवानी डालने में भी प्रयतना नहीं करनी