________________
[ २३४ ]
सम्यक्त्व-निरूपण
करने वाले अनेक पुरुषों को समान फल की प्राप्ति न होना उनके पूर्वोपार्जित श्रदृष्ट घर निर्भर है अतएव उससे नियतिवाद की सिद्धि नहीं होती । इसीलिए कहा गया है कि
न दैवमिति संचिन्त्य त्यजेदुद्योगमात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्नुमर्हति ॥
•
अर्थात् जो होनहार है सो होगा, ऐसा विचार कर अपना उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए | बिना उद्योग किये तिलों से तेल कौन पा सकता है ? तिलों में तेल तो विद्यमान रहता है पर उद्योग करने वाला ही उसे प्राप्त कर सकता है, भाग्य के भरोसे रहने वाला नहीं ।
(४) कर्मवादी - एकान्त रूप से कर्म को ही सुख-दुःख आदि का कारण मानने वाला कर्मवादी कहलाता है - सब मनुष्य मनुष्यत्व की अपेक्षा समान हैं, सभी की इन्द्रियां और श्रृंगोपांग भी समान हैं, फिर भी एक राजा होता है, दूसरा रंक होता है । समान परिश्रम करने वाले दो शिष्यों में से एक प्रतिभाशाली, अपने विषय में पारंगत विद्वान् हो जाता है और दूसरा कर्म के कारण मूर्ख ही बना रहता है । भगवान् ऋषभदेव सदृश पुण्यशाली महापुरुष को एक वर्ष तक अन्न का एक भी कण प्राप्त न हो सका, चरम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी को घोर उपसर्ग सहने पड़े, सागर चक्रवतीं के साठ हजार पुत्र एक साथ काल के कवल बने, यह सब कर्म का ही माहात्म्य समझना चाहिए ।
एकान्त कर्मवादी से यह पूछा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न प्राणियों के भिन्न-भिन्न कर्म होने का क्या कारण है ? क्या विना क्रिया किये ही विना व्यापार ही-कर्म का संयोग जीव के साथ हो जाता है ? यदि हो जाता है तो सभी जीवों के एक सरीखे कर्मों का संयोग क्यों नहीं होता ? तथा मुक्त जीवों को भी कर्म- संयोग नहीं होता ? यदि जीव के व्यापार की भिन्नता के कारण कर्मों में भिन्नता होती है तो जीव के व्यापार को अर्थात् उद्योग को भी कारण मनना चाहिए । फिर सिर्फ कर्म को ही कारण क्यों कहते हो ? इस प्रकार एकान्त कर्मवाद भी विचार करने पर खंडित हो जाता है ।
( ५ ) उद्यमवादी - एकान्त उद्यमवादी, कर्म, काल, स्वभाव आदि का सर्वथा निषेध करके एकान्ततः उद्यम को ही कारण स्वीकार करता है । वह कहता है- प्रत्येक कार्य उद्यम से ही सिद्ध होता है । उद्योगी पुरुष ही प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करता है । उद्योगी पुरुष अपने उद्योग की प्रबलता से दुस्साध्य कार्य भी सुसाध्य चना लेता है | पुरुष ने उद्योग करके वायुयानों का निर्माण किया है, विद्युत को -अधीन करके उससे अनेक कौतूहल बर्द्धक और श्राश्चर्यजनक आविष्कार कर लिये हैं। उद्योग से रंक राजा, मूर्ख पंडित और निर्धन पुरुष संघन वन जाता है । उद्योग का महत्व सब के सामने हैं । श्रतएव उद्योग को ही कारण के रूप में अंगीकार करना चाहिए |.