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जटा अध्याय
[ २४३ ] सम्यक्त्व के विषय में इस प्रकार का बारम्बार चिन्तन करना अत्यन्त उपयोगी है। इस प्रकार के चिन्तन से सम्यक्त्व की महत्ता का प्रतिभास होता है, सम्यक्त्व के विषय में श्रादर का भाव उत्पन्न होता है और उसे सुरक्षित रखने के लिए उद्यम करने में उत्साह बढ़ता है।
सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए छह स्थानों को भी प्रतिपादन किया गया है। जैसे-(१) श्रात्मा है (२) श्रात्मा द्रव्यतः नित्य है (३) प्रात्मा अपने कर्मों का कर्ता है (४) आत्मा अपने कृत कर्मों के फल को भोगता है (५) श्रात्मा को मुक्ति प्राप्त होती है (६) मोक्ष का उपाय है । इन छह स्थानकों को विस्तार से समझ कर इनका विचार करने से भी सम्यक्त्व की स्थिरता होती है और श्रात्मा अपने हित के लिए चेष्टा करता है। मूलः-नत्थि चरितं सम्मत्तविहूणं, दसणे उ भइ अव्वं ।
सम्मत्तं चरित्ताई, जुगवं पुव्वं व सम्मत्रं ॥ ६॥ छाया:-नास्ति चारित्रं सम्यस्त्वविहीन, दर्शने तु भक्तव्यम् ।
सम्यक्त्व चास्नेि, युगपत् पूर्व वा सम्यक्त्वम् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:-सन्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक् चारित्र नहीं होता । सम्यग्दर्शन के होने पर चारित्र भजनीय है । सम्यक्त्व और चारित्र एक साथ होते हैं अथवा सम्यग्दर्शन पहले होता है।
भाध्यः-सम्यग्दर्शन के भेद-प्रभेदों का निरूपण करने के पश्चात् उसका महत्व बताने के लिए तथा मोक्ष मार्ग में सम्यग्दर्शन की प्राथमिकता सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने इस गाथा का निर्माण किया है।
__सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र का आविर्भाव नहीं होता । सम्यक्त्व रहित अवस्था में भी मिथ्याष्टिबत, नियम, कायक्लेश श्रादि क्रियाएँ करते हैं किन्तु उनकी दृष्टि विपरीत (मिथ्या ) होने के कारण वे समस्त क्रियाएँ मिथ्या क्रियाएँ होती है और संसार-भ्रमण की हेतु हैं । उन क्रियाओं से मोक्ष की आराधना नहीं होती।
दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय नादि से जर सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाती है तव जीव चतुर्थ गुरणस्थानवत्ती हो जाता है। चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्यास्थानावरण कपाय का सद्भावरहता है और इनके सद्भाव में न देशविरति होती हैं और न सर्वविरति होती है। जब इन कपायों का क्षय या उपशाम श्रादि होता है तब क्रमशः एक देश चारित्र और सकल चारित्र की प्राप्ति होती है । इसीलिए यहां सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यक् चारित्र को भजनीय कहा गया
है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन की विद्यमानता होने पर भी किसी जीव को 'चारिध होता है, किसी को चारित्र नहीं होता । अविरत सम्यग्दष्टि नामक चतुर्थ