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छठा अध्याय
[ २३५ ) किन्तु अन्यान्य एकान्तवादों की तरह उद्यमैकान्तवाद भी तर्क की कसौटी पर सच्चा नहीं सिद्ध होता। मनुष्य तो क्या, देवराज इन्द्र भी अग्नि को शीत रुपता प्रदान नहीं कर सकता। वह कोटिशः प्रयत्न करके भी आत्मा को मूर्तिक, पुद्गल को श्रमूर्तिक और आकाश को हस्तगत करने में असमर्थ ही रहेगा । वास्तव में जिस वस्तु का जिस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि निमित्तों से जिस रुप परिणत होने का स्वभाव है, वही वस्तु उद्यम के द्वारा उस रूप में परिणत हो सकती है । अतएक अकेले उद्यम को कारण मानना सर्वथा अनुचित है।
__ उल्लिखित एकान्तवाद, इसी कारण मिथ्या है कि वे सिर्फ एक कारण को,अन्य कारणों का अप्रलाप करके स्वीकार करते हैं। यदि ये एकान्तवादी अन्य कारणों को भी यथोचित रूप से स्वीकार करें तो छानेकान्तवादी होकर पाखंडी नहीं रहेंगे। उक्त पांचो एकान्तवादी मूलतः चार प्रकार के हैं-१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) अज्ञानवादी और (४) विनयवादी । इन चारों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है:
(१) क्रियावादी-जो लोग ज्ञान आदि की अपेक्षा न करके एकान्त रूप से क्रिया में ही लीन रहते हैं, सिर्फ क्रिया को ही मोक्ष का कारण स्वीकार करते हैं, अथवा जो जीव को एकान्ततः क्रिया-परिणत ही स्वीकार करते हैं वे भी क्रियावादी कहलाते हैं । क्रियावादियों के १८० भेद होते हैं । पूर्वोक्त पांच एकान्तवादों को स्व और पर की अपेक्षा द्विगुणित करने से दस भेद होते हैं। दस भेदों को शाश्वत और अशाश्वत के भेद से द्विगुणित करने पर रीस भेद हो जाते हैं । इन बीस भेदों को लव तत्व के साथ गुणाकार करने से १८० भेद हो जाते हैं । एकान्त क्रियावाद पर रहले विचार किया जा चुका है। अतएव यहां पुनरावृत्ति नहीं की जाती।
- (२ प्रक्रियावादी-श्रक्रियावादी का मन्तव्य है कि भात्मा न स्वयं कोई झिया करता है और न दुसरों से कराता है। यहां तक कि गमनागमन आदि क्रियाएँ भी श्रात्मा नहीं करता, क्यों कि श्रात्मा व्यापक और नित्य है । जैसे श्राकाश व्यापक और नित्य होने के कारण कोई क्रिया नहीं कर सकता उसी प्रकार श्रात्मा भी क्रिया का कर्ता नहीं है । अफ्रियावावादी का यह मत युक्ति और अनुभव दोनों से बाधित है। यदि यात्मा क्रिया नहीं करता तो चतुर्गति रूप संसार किस प्रकार वन सकता है ? फिर समस्त आत्माएँ सदा मुक्त क्यों नहीं हैं ? दुःख-सुख श्रादि की विचित्रता जीवों में किस कारण पायी जाती है ? इसके अतिरिक्त गमन-श्रागमन श्रादि क्रिया प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत होती है । प्रत्यक्ष से निर्धान्त प्रतीत होने वाली वस्तु का श्रमलाप नहीं किया जा सका । श्रतएव नीव को एकन्त रूप से किया हीन मानना मिथ्यात्व है। इन मिथ्यात्वियों के चौरासी (२४) भेद होते हैं । उक्त पाँच भेदों तथा ब्रह्मा की इच्छा से जगत् की उत्पत्ति की अपेक्षा छह कारणों को स्वात्मा और परत्मा की अपेक्षा द्विगुणित करने से बारद भेद होते हैं। बारह भेदों को सात तत्वों के साध गुणाकार करने पर चौरासी भेद बनते हैं। पुण्य और पाए रूप दो तत्वों को छोड़ दिया गया है, क्योंकि प्रक्रियावादी पुण्य और पाप का आत्मा के साथ संबंध होना नहीं मानते हैं।