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- सभ्यस्त्व-निरूपण :: (३) अज्ञानवादी-अज्ञानवादी कहता है कि यद्यपि संसार में अनेक त्यागी, वैरागी, पंडित-विद्वान् और शास्त्रकार अपने-अपने ज्ञान का वर्णन करते हैं, परन्तु उन सब का ज्ञान परस्पर विरोधी है। एक मत का प्राचार्य जो ज्ञान बतलाता है, उसे अन्य सभी प्राचार्य मिथ्या कहते हैं, इसी प्रकार सभी के ज्ञान दूसरों की दृष्टि में मिथ्या प्रतीत होते हैं। अतएव अज्ञान ही श्रेष्ठ है, ज्ञान की कल्पना करना निरर्थक है । जैसे म्लेच्छ पुरुष; आर्य पुरुष के कथन का अनुवाद मात्र करता है, अर्थ को नहीं समझता, उसी प्रकार सभी मतवाले अपने मतप्रवर्तक को सर्वश मानकर उनके उपदेशानुसार प्रवृत्ति करते हैं परन्तु सर्वज्ञ के वास्तविक अभिप्राय को, असर्वज्ञ पुरुष नहीं जान सकता। इसके अतिरिक्त कौन सत्यवादी है और कौन भलत्यवादी है ? इस प्रकार का निर्णय करना किसी के लिए संभव नहीं है । ऐसी दशा में ज्ञान के फंदे में न फँस कर अज्ञान को ही स्वीकार करना चाहिए । ज्यों-ज्यों ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों-त्यों दोप भी. बढ़ते जाते हैं, क्योंकि जानने वाला अगर अपराध करता है उसे प.प लगता है और न जानने वाला पाप से मुक्त रहता है । वर्तमान में भी अवोध बालक द्वारा किये हुए अपराध कानून की दृष्टि में उपेक्षणीय होते हैं, जानकार द्वारा कृत अपराध तीन दण्ड के कारण होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान ही अधिक श्रेयस्कर है । अंज्ञान वह कवचं है जिससे दुःखों से. रक्षा . हो जाती है। .. :: . ... ....
अज्ञानवादी का पूर्वोक्त कथन ठीक नहीं हैं। यदि अज्ञानवाद ही श्रेष्ठ है तो स्वयं अज्ञानवादी ज्ञान मिथ्या है, अज्ञान श्रेष्ठ है। इस प्रकार की मीमांला क्यों करता है ? यदि सब ज्ञान मिथ्या है तो अज्ञानवादी का ज्ञान भी मिथ्या ही मानना होगा और फिर मिथ्याज्ञान मूलक उसका कथन सत्य कैसे हो सकता है ? जर 'उनका कथन और ज्ञान मिथ्या है तो अज्ञानवाद केले सिद्ध हो सकता है ? अज्ञानचांद यदि सस्या होता तो स्वयं अज्ञानवादी अपने मत की-अज्ञानवाद की-शिक्षा क्यों देता? इसले स्पष्ट है कि अज्ञानवादी स्वयं अज्ञान को सस्या नहीं समझता। यही कारण है कि वह अपने मत का ज्ञान दूसरों को कराता है। . . . . .
... समस्त मत परस्पर विरोधी होने के कारण मिथ्या है, यह कथन सर्वथा मिथ्या है । मिथ्या का विरोधी सब मिथ्या नही होता । मिथ्या मतों से विरुद्ध होने पर भी सर्वज्ञ वीतरोग द्वारा उपदिष्ट मत सत्य है। छातएव अमानवाई मिथ्या है । अजानवादियों के ६७ भेद होते हैं । पूर्वप्रतिपादित संप्त भंगी के सिर्फ एक-एक भंग को लेकर नव तत्वों के साथ गुणाकार करने से त्रेस: विकल्प निष्पन्न होते हैं। अर्थात् नव तत्वों संबंधी प्रत्येक भंग के ज्ञान का निषेध करने से उक्त भेद सिद्ध होते हैं । सांख्यमत, आदि चार जोड़ने से ६७ भेद हो जाते हैं। .... (४ विनयवाद- सम्प-अप्सम्यक् सदोष-निदोष आदि का विधेक न करके एकान्ततः विनय से मुलि मानना विनयवाद कहलाता है। इसे चैनयिक मिथ्यात्व भी कहते हैं । वैनयिक मिश्या दृष्टि अपनी सूढ़ता के कारण यह निश्चय नहीं करता कि