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छठा अध्याय
[ २३१ ]
शब्दार्थ : - दूषित वचनं बोलने वाले, पाखण्डी सभी कुमार्ग में चलने वाले हैं । जिन भगवान् द्वारा कहा हुआ मार्ग ही सन्मार्ग है । यही उत्तम मार्ग है ।
भाष्य:--
- पूर्ववत गाथा में कुदर्शन के त्याग का निरूपण किया था किन्तु कुदर्शन कौन हैं ? जब तक यह बात भलीभांति न जान ली जाय तबतक उनका त्याग नहीं किया जा सकता । अतएव इस गाथा में कुदर्शन का कथन किया है । किन्तु सम्यग्दर्शन एकान्त प्रतिषेध रूप नहीं है, वरन् विधि का उसमें प्राधान्य है । अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि कुदर्शन का त्याग करना ही यदि सम्यक्त्व नहीं है तो ग्रहण किसका करना चाहिए ? इस शंका के समाधान के लिए गाथा का उत्तरार्ध कहा गया है ।
कुप्रवचन ' में शब्द कुत्सित श्रर्थात् मिथ्या के अर्थ में है । श्रतः 'कप्रवचन ' का अर्थ होता है—मिथ्या भाषण करने वाले । अनेकान्तात्मक वास्तविक वस्तु का कथन न करके उसे एकान्त रूप प्रतिपादन करने वाले कुप्रवचन कहलाते हैं । संस्कृत भाषा के अनुसार 'कुत्सितं प्रवचनं यस्यासौ कुप्रवचनः ' ऐसा पद निष्पन्न होता है । यह बहु-व्रीहिसमासान्त पद है । विशेषण - विशेष्यभाव समास करने से ' कुत्सितं प्रवचनम कुप्रवचनम् ' मिथ्या वचन कुप्रवचन कहलाता है । इससे एकान्तवाद के निरूपण करने वाले मिथ्या शास्त्रों का ग्रहण होता है ।
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'पापराडी ' दंभ करने वाले व्यक्ति को कहते हैं । अथवा पापण्डी सामान्य रूप से व्रती के अर्थ में प्रयुक्त होता है । जब सामान्य रूप से व्रती का अर्थ विवक्षित हो तो ' कुप्यवयणपासंडी ' इस समास युक्त पद के आदि में विद्यमान 'कु' का पापंडी के साथ भी श्रन्वय करना चाहिए । इस प्रकार कुपापण्डी का अर्थ कुवती अर्थात् मिथ्या चारित्रवान् होता है । तात्पर्य यह है कि मिथ्या प्रवचन करने वाले, मिथ्यावचन और मिथ्या चारित्रवान् व्यक्ति कुमार्ग की ओर चले जा रहे हैं । जो उनका अनुसरण करेगा वह भी कुमार्ग में दी जायगा और अपने लक्ष्यस्थान - -सिद्धि क्षेत्र को प्राप्त न हो सकेगा । सम्यग्दृष्टि पुरुष को चाहिए कि वह इनका अनुसरण न करे ।
मोहरूपी नट के नाट्य के अगणित प्रकार हैं । उसके एक-एक नाट्य से एक-एक मिथ्यात्व की सृष्टि होती है । तथापि प्राचीन ऋषियों ने पाखण्ड मतों का ३६३ ( तीन सौ त्रेसठ ) भेदों में वर्गीकरण किया है । एकान्तवाद का अवलम्बन करने से प्रत्येक मत पाखण्ड मत बन जाता है । मूल में एकान्तवादियों के पांच भेद हैं - (१) कालवादी (२. स्वभाववादी (३) नियतिवादी (४) कर्मवादी और (४) उद्यमवादी ।
(१) कालवादी - एकान्त कालवादी समस्त कार्यों की उत्पत्ति और जगत् का नियंत्रण काल ही के निमित्त से स्वीकार करता है । वह न क्रिया को कार्योत्पात में कारण मानता है, न उद्योग को ही । काल के अतिरिक्त अन्य सब कारणों का निषेध