________________
पांचवां अध्याय
को पल भर में पराजित कर देता है ।
#
[ २१७ ]
मोह ही वह घोर शत्रु है जो श्रात्मा को अपने अनन्त सुख का भान नहीं होने देता और सुख के लिए क्षुद्र, विनश्वर, पापजनक भोगों का आश्रय लेने के लिए प्रेरित होता है । श्रात्मा का स्वभाव ही अनंत श्रानंदमय है । वह श्रानंद काल से और परिमाण से परिमित नहीं है । उसके भोगने के लिए पापाचार नहीं करना पड़ता । वह तो आत्मा को श्रात्मा के द्वारा, आत्मामें स्थिर करने से प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार जो अपना है, अपने समीप है, उसे प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों की गुलामी. जगत् की गुलामी और भोगोपभोगों की अभ्यर्थना करने की क्या श्रावश्यकता है ?फिर भी मोह के प्रभाव से मूढ़ बने हुए मनुष्य इस तथ्य को नहीं समझते । वे श्रात्मा के भीतर प्रवेश नहीं करते । वे इन्द्रियजन्य, अतृप्तिकारक, तृष्णावर्द्धक, पराश्रित, विनाशशील, शान्त, दुःखों से व्याप्त और परिमित सुख के लिए निरन्तर लालायित रहते हैं।
बाह्य पदार्थ वास्तव में न सुखदाता है, न दुःखदाता है, न बंध का कारण है, नमुक्ति का कारण है । श्रात्मा का रागभाव-मोह रूप परिणाम ही दुःखदायक है और वीतरागभाव अर्थात् शरीर यादि के समस्त पर-पदार्थों के प्रति अनासक्ति रूप परिणति ही सुख का कारण है । जिसे धन-धान्य, वैभव, आदि प्राप्त नहीं हैं, वह भी यदि उनमें मूर्छा-ममता-प्रासक्ति रखता है तो उसे अवश्य बंध होता है । व चाह्य पदार्थों की अपेक्षा श्रात्मा की राग-द्वेष परिणति ही अधिक अनर्थकारी होती है । श्रतएव सूत्रकार ने यहां शरीर संबंधी तथा इन्द्रिय-विषय संबंधी आसक्ति को दुःखजनक वतलाया है । .
. सूत्रकार ने शरीर संबंधी तथा वर्ण और रूप संबंधी श्रासक्ति को यहाँ दुःख का कारण कहा है सो इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य धन जन आदि के प्रति होने वाली अथवा स्पर्श आदि विषयों में होने वाली आसक्ति दुःख का कारण नहीं है । 'जैसे साँपनाथ वैसे नागनाथ' की कहावत के अनुसार पर-पदार्थों की सभी प्रकार की आसक्ति एकान्त दुःख का ही कारण है । श्रतएव उपलक्षण से सभी आसक्तियों का ग्रहण करना चाहिए ।
• वर्ण और रूप सामान्य रूप से एकार्थक से प्रतीत होते हैं, किन्तु सूत्रकार ने दोनों का एक प्रयोग किया है, अतएव रूप का तात्पर्य यहाँ सुन्दरता समझना चाहिए। वर्ष अर्थात् रंग और सौन्दर्य में भेद प्रसिद्ध है । सुन्दरता का किसी व विशेष में संबंध नहीं हैं । कोई भी वर्ण हो, जो जिसे रुचिकर है वह उसे प्रिय लगता है । सौन्दर्य श्राकृति आदि की भी अपेक्षा रखता है अतएव दोनों की मिश्रार्थकता सिद्ध है।
'मनसा कायवक्केण' कहने का प्रयोजन यह है कि जो मनुष्य केवल मन से आसक्त होते हैं उन्हें भी दुःख भोगना पड़ता है, तो जिनका सम्पूर्ण योग सर्वशः अर्थात् पूर्ण रूप से वाह्य पदार्थों में आसक्त है उनकी कितनी दुर्गति होगी ! उन्हें