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झान-प्रकरण राग और खस्ने-सूख्ने, नीरस भोजन के प्रति द्वेष नीं करते । जिसे जिस पदार्थ से राग नहीं है उसे उस पदार्थ की प्राप्ति हो जाय तो वह प्रसन्नता का अनुभव नहीं करता है । इस प्रकार लच्चा ज्ञानी भोजन, वस्त्र, शिष्य प्रादि की प्राप्ति और श्रप्राप्ति में साश्यभाव धारण करते हैं।
सुख-दुःख में भी शानी मध्यस्थभाव धारण करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी अन्त. भुख हो जाती है कि वे शरीर में रहते हुए भी शरीर से परे हो जाते हैं। उन्हें श्रात्मा, अनात्मा का भेदज्ञान हो जाता है । अतएव शारीरिक कष्ट को वे आत्मा का कष्ट अनुभव नहीं करते और शारीरिक सुख को आत्मा का सुख नहीं समझते । वे आत्मा के स्वरूप में सदा विचरते रहते हैं। ..
दुःखे सुस्ने वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने बने वा।।
निराकृता शेष ममत्वं बुद्धेः, समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ ॥ :: . अर्थात् हे प्रभो ! दुःख में, सुख में, वैरी और बन्धुवर्ग में, संयोग और वियोग में, भवन में और वन में, सब प्रकार की ममता-वुद्धित्याग कर मेरा मन निरन्तर सम वना रहे।
इस प्रकार की प्रान्तरिक अभ्यर्थना का परिपाक हो जाने से अथवा. इस भावना के मूर्तिमान हो जाने के कारण उन्हें सुख-दुःख में हर्ष-विषाद नहीं होता । ज्ञानीजनं सोचते हैं कि आत्मा अनन्त सुन का भंडार है, सुख प्रात्मा का स्वाभाविक धर्म है, उसमें दुःस्त्र का प्रवेश कैसे हो सकता है ? अगर कोई अज्ञानी पुरुष ताड़ना करता है, शस्त्र का प्रहार करता है. अथवा अन्य किसी उपाय से दुःख को उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है तो करता रहे, ऐसा करके वह अपना ही अहित करेगा। मेरा क्या जिगहेंगा ? मेरा आत्मा उसकी पहुंच से बाहर है। वह सिर्फ शरीर का ही वध-बंधन
आदि कर सकता है, पर मैं शरीर नहीं हूं। में शरीर से निराला आत्मा हूं। अमूर्तिक हूं । जैसे कोई अमूर्तिक आकाश में शस्त्र-प्रहार करता है तो.श्राकाश की क्या हानी . है ?' इसी प्रकार मुझे यह हानि नहीं पहुंचा सकता। इसके सिवाय ज्ञानी पुरुप यह विचार करते हैं कि अमुक व्यक्ति मुझे दुःख दे रहा है, ऐसा समझना ही मिथ्या हैं। असल में दुःख देनेवाला तो अंलातावेदनीय कर्म है.। यदि मैंने असातावेदनीय कर्म का बंध किया है तो उसका फल मुझे भोगना ही. पढ़ेगा । विना भोगे वह छुट नहीं सकता। इस पुरुष का मुझपर बड़ा उपकार है कि इसने निमित्त बनकर बंधे हुए कर्म को भोगने का अवसर दिया है। अब मैं इस कर्म से मुक्त हो जाऊंगा। पहले लिया हुश्रा ऋण मुझपर चढ़ा था सो इस पुरुष के निमित्त से श्राज चुक गया। मेरा भार । कम हो गया।
सुख का अवसर प्राप्त होने पर ज्ञानी पुरूप विचारता है कि यदि कोई अपना अनमोल सजाना गयाकर, उसके बदले एक कौड़ी पाये तो उसे हर्ष मनाने का क्या कारण है ? मैंने आत्मिक सुख का अक्षय कोप लुटाकर यदि इन्द्रियजन्य किंचित मुख पाया भी,, तो यह कौन-सी प्रसन्नता की बात है.? इत्यादि विचार करके वह